
पराए विचारों पर जीन मत कसिए, मौलिक विचार खोजिए
अतुल कनक
लेखक और साहित्यकार
यह वर्ष पूर्ववर्ती सोवियत संघ के मशहूर रचनाकार रसूल हम्जातोव का जन्म शताब्दी वर्ष है। उनका जन्म 8 सितंबर 1923 को पूर्वीवर्ती सोवियत संघ के उत्तर-पूर्वी काकेसस के एक छोटे से गांव तसादा में हुआ था। वे अवार बोली के श्रेष्ठ रचनाकार थे और कहा यह भी जा सकता है कि रसूल हम्ताजोव के कारण दुनिया के चार-पांच हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा की सर्जनात्मक सामथ्र्य की ओर सारी दुनिया का ध्यान गया। रसूल हम्जातोव की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, लेकिन उनकी पहचान मेरा दागिस्तान नामक गद्य पुस्तक के लेखक के रूप में अधिक है। इस किताब की गणना दुनिया में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में होती है।
रसूल हम्जातोव को कविता के प्रति आसक्ति पिता से विरासत में मिली। दागिस्तानी पहाड़ी की तलहटी में बसे एक छोटे से गांव में जन्म लेकर गिने-चुने परिवारों की भाषा में लिखकर हम्जातोव ने जो ख्याति हासिल की, वह किसी भी रचनाकार के लिए प्रेरणा का विषय हो सकती है। खासकर इस दौर में, जबकि कृत्रिम मेधा (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को रचनाधर्मिता के क्षेत्र में भी एक बड़ी चुनौती माना जा रहा है। हम्जातोव की साहित्य यात्रा बताती है कि चिंतन और चेतना में मौलिकता का मुकाबला करने में कोई मशीन कभी सक्षम नहीं होती। कई बार आशंकाएं हमारी चेतना को मुखर होने से रोकती हैं। समय का रणक्षेत्र अंतत: उसी के हाथों में विजय श्री सौंपता है, जो श्रेष्ठ है। मेरा दागिस्तान में उल्लेखित एक प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है। रसूल हम्जातोव ने लिखा है कि एक बार तीन योद्धा अपनी अपनी तलवारों की श्रेष्ठता के बारे में डींग हांक रहे थे। तब उन्हीं के पास बैठे हाजी मुराद नामक विद्वान ने कहा,'चिनारों की ठंडी छाया में तुम किसलिए यह बहस कर रहे हो कि किसकी तलवार अच्छी है? कल पौ फटते ही लड़ाई होगी और तुम्हारी तलवारें खुद ही फैसला कर देंगी कि कौनसी तलवार बेहतर है।' बेशक, कृत्रिम मेधा चुनौतियां सृजित करेगी, लेकिन मनुष्य की मेधा किसी भी चुनौती के आगे के आगे कब पस्त हुई है?
रसूल हम्जातोव ने अपनी कृतियों में अपने समय, अपने समाज,अपनी परंपराओं और अपने सपनों के बारे में बहुत खुलकर लिखा है। एक स्थान पर वे लिखते हैं, 'बोलना सीखने के लिए आदमी को दो साल की जरूरत होती है, मगर यह सीखने के लिए कि जबान को काबू में कैसे रखा जाए, साठ बरस की आवश्यकता होती है।' अपनी इस किताब में रसूल हम्जातोव ने अपने इलाके, अपनी परंपराओं, अपने परिवेश, अपनी भाषाई प्रतिबद्धता और अपने सपनों के बारे में खुल कर लिखा है। एक स्थान पर वह कहते हैं, 'मेरी कविता मेरा सृजन करती है और मैं कविता का।' इन पंक्तियों को पढ़ते हुए भारतीय पाठकों को अचानक घनानंद याद आ जाते हैं, जिन्होंने कहा था, 'लोग हैं लागि कवित्त बनाबै/ मोहें तो मोरे कवित्त बनावत।' यानी लोगों को लगता है कि वह कविता रच रहे हैं, लेकिन मुझे तो मेरी कविता रचती है। रसूल हम्जातोव मूलत: कवि थे और कविता की सृजनशक्ति में उनका अपार विश्वास था। इसीलिए जहां वे लिखते हैं कि 'सृष्टि की उत्पत्ति के भी सौ साल पहले परमात्मा ने कवि को बनाया होगाÓ, वहीं एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा, 'दुनिया में कोई चीज कविता के सौंदर्य का स्थान नहीं ले सकती है।Ó काव्य के प्रति रसूल हम्जातोव की आसक्ति का अनुमान उनकी पंक्ति -'कविता, तुम नहीं होती, तो मैं यतीम हो जाता' से भी लगाया जा सकता है।
एक छोटे से गांव में जन्म लेकर दुनिया भर में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले रसूल हम्जातोव ने 3 नवंबर 2003 को हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन तब तक उनका लेखन दुनिया को अपना मुरीद बना चुका था। 'अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे, तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा' (अबू तालिब) जैसी पंक्तियों का अपनी पुस्तकों के प्रारंभ में उल्लेख करने वाले रसूल हम्जातोव का चिंतन और उनका लेखन हमेशा पीढिय़ों को यह प्रेरणा देता रहेगा कि 'किसी दूसरे के घोड़े पर सवार होने वाले को देर-सवेर उससे उतरना पड़ता है और घोड़े को उसके मालिक को सौंप देना होता है। पराए विचारों पर जीन मत कसिए, अपने लिए मौलिक विचार खोजिए।' क्या कृत्रिम मेधा की संभावित चुनौतियों की आशंका के बीच यह एक महत्त्वपूर्ण सीख नहीं है?
Published on:
10 Jul 2023 09:50 pm
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