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साख पर सवाल

एक वक्त था जब देश में चुनाव आयोग की इज्जत दो कौड़ी की हो गई थी। हर चुनाव में, हर राज्य में मतदान केन्द्रों पर कब्जे होने लगे, हिंसा होने लगी।

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Sunil Sharma

Nov 28, 2017

election commission of india

- गोविन्द चतुर्वेदी

साख से बड़ा कुछ नहीं होता। उसी से विश्वास बनता है। यह विश्वास ही था जिसके सहारे २०१४ में नरेन्द्र मोदी को देश की जनता ने प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया था। यह साख ही थी जिसने १९७७ में बुरी तरह पराजित हुई श्रीमती इंदिरा गांधी को ढाई साल में ही वापस देश की सत्ता सौंप दी।

एक वक्त था जब देश में चुनाव आयोग की इज्जत दो कौड़ी की हो गई थी। हर चुनाव में, हर राज्य में मतदान केन्द्रों पर कब्जे होने लगे, हिंसा होने लगी। पैसा इतना खर्च होने लगा कि, हिसाब लगाने वाले भी छकड़ी भूलने लगे। ऐसे वक्त में टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर आए।

१९९० से १९९६ के बीच छह वर्ष इस कुर्सी पर रहे और सारी फिजां बदल गई। सब कब्जे-हिंसा गायब हो गए। चुनाव खर्च की सीमा बंध गई। सारी गंदगी जैसे साफ हो गई। उनसे पहले और बाद में, बीस व्यक्ति इस पद पर रह लिए पर आम मतदाता को कुछ ही मुख्य चुनाव आयुक्त याद हैं-जैसे शेषन, एसवाय कुरेशी, वीएस सम्पत। उनके सामने आते ही आपराधिक छवि के बड़े राजनेताओं की घिग्घी बंधने लग गई थी। ये वो करते थे जो उन्हें सही लगता था। सरकार की तरफ वे देखते भी नहीं थे। पर जनता को हालात फिर बदलते से नजर आ रहे हैं।

चाहे हिमाचल और गुजरात विधानसभा के चुनाव साथ कराने की परम्परा के टूटने की बात हो या राजस्थान-मध्यप्रदेश सहित देश के अनेक राज्यों में लोकसभा-विधानसभा की खाली सीटों के उपचुनाव का कार्यक्रम घोषित नहीं होने का सवाल हो, पर चर्चाएं होने लगी हैं। इनसे भी ज्यादा अंगुलियां आयोग पर ईवीएम मशीनों को लेकर उठ रही हैं। जहां भी चुनाव हो रहे हैं, ये मशीनें परीक्षण में फेल हो रही हैं। फिर चाहे उत्तरप्रदेश या उत्तराखण्ड के विधानसभा चुनाव हों या मध्यप्रदेश में लेकिन ईवीएम मतदान केन्द्रों पर कब्जे का नया अवतार भी नहीं बनना चाहिए।

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार करे या सुप्रीम कोर्ट के कहे अनुसार कॉलेजियम, देश की जनता को उनमें टी. एन. शेषन जैसे ही दिखने चाहिए। यही भरोसा आयोग की साख को बनाएगा। इस साख को बनाए रखने में पुराने चुनाव आयुक्तों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। उनके पास अनुभव है। उन्होंने आयोग के कामकाज को अन्दर रहकर देखा है। ऐसे में उनको भी इस साख के लिए मेहनत करनी चाहिए। क्योंकि आयोग पर उठने वाला सवाल कहीं ना कहीं उन पर भी तो उठेगा। नहीं तो हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का कितना भी ढिंढोरा पीट ले, घर में साख पर सवालिया निशान बना ही रहेगा जो लोकतंत्र के लिए घुन (कीड़े) का ही काम करेगा।