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ऐसी रूढिय़ों को हटाने के लिए, मिटाने के लिए, बदलने के लिए एक बहुत ही दृढ़ संकल्पवान नेतृत्व चाहिए।

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Gulab Kothari

Nov 27, 2017

acharya tulsi

acharya tulsi

शिक्षा के अभाव में हमारा देश रूढिय़ों और मान्यताओं के आधार पर चलता रहा है। इनमें सामाजिक रूप से जुड़ी हुई रूढिय़ां होती हैं, उनका रूपान्तरण हरेक नहीं कर सकता। ऐसी रूढिय़ों को हटाने के लिए, मिटाने के लिए, बदलने के लिए एक बहुत ही दृढ़ संकल्पवान नेतृत्व चाहिए। आचार्य तुलसी ने एक नहीं कई ऐसी घटनाओं के अवसर, मान्यताएं जिनका उन्होंने विरोध ही नहीं किया बल्कि उन्हें समूल नष्ट करने के लिए प्रयत्न भी किए और सफल भी हुए। वे एक नए स्वरूप में आगे निकलने में सफल हुए और कई नई परम्पराएं भी डालीं।

कुरीतियों से लडऩा
आज हमें उनके फल अच्छे लग रहे हैं लेकिन उन कुरीतियों को बदलने तक उन्हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा। इसमें अपना ही समाज कई बार उनके सामने खड़ा हो जाता था। दूसरे समाज खड़े हों, तो समझ में आता है। जब १९६२ में बीकानेर में थड़ी के आस-पास अणुव्रत आन्दोलन के लिए प्रचार-प्रसार का कार्य किया जा रहा था तब इस इलाके में एक नए विरोध का स्वर पैदा हुआ। हरिजन बस्तियों से ये संदेश आने लगे कि आपके धर्मगुरु हमारे घर में तो आते ही नहीं हैं। हमारे यहां से आहार-गोचरी कुछ लेते ही नहीं हैं और आप लोग हम से कहते हो कि हम आपके साथ जुट जाएं, आपके काम में साथ हो जाएं। यह कैसे संभव है? यह बात बहुत ऊपर तक उठी और शायद आचार्य श्री के कान तक भी पहुंची।

आचार्य ने यह सुन अपने यात्रा मार्ग के उद्देश्य को तुरन्त बदल दिया। उन्होंने डूंगरगढ़ में हरिजन सम्मेलन की घोषणा कर दी। उन्होंने पूरे प्रवास के मार्ग का, विहार के मार्ग में डूंगरगढ़ तक हरिजनों की बस्तियों का भी दौरा किया। वे लोगों से मिले, उनसे चर्चा की। उनकी गोचरी ली, आहार लिया। उनकी समस्याओं पर चर्चा करते-करते वे डूंगरगढ़ पहुंचे। डूंगरगढ़ में सभा की पूरी तैयारी थी लेकिन समाज वाले इस बात पर अड़े हुए थे कि आचार्य श्री इस पाण्डाल में एक भी हरिजन नहीं लाएंगे। यह कैसे संभव हो सकता था? जबकि आचार्य श्री का तो लक्ष्य था सम्मेलन को बुलाना। आचार्य श्री ने कहा ‘हरिजन पाण्डाल में नहीं आएंगे तो हम बाहर सम्मेलन करेंगे, लेकिन सम्मेलन होगा और अगर आप लोग सम्मेलन में नहीं आएंगे तो मुझ पर उपकार करेंगे।’

आचार्य श्री ने जो संकल्प किया था वह कर दिखाया। सम्मेलन उसी पाण्डाल में हुआ। पूरा समाज उसमें शामिल हुआ था। इस परिस्थिति का कोई आकलन करके देखे कि किस तरह के ‘लोहे के चने चबाना है’ इन कुरीतियों से लडऩा, अपने ही समाज से भीतर बैठकर लडऩा। उन्हीं लोगों से लडऩा, जिनके कंधों पर समाज को आगे ले जाने का बोझ है। सम्मेलन की सफलता का प्रभाव यह हुआ कि उस क्षेत्र में एक के बाद एक हरिजनों के सम्मेलन होने लग गए। तो क्या यह छोटा सा परिवर्तन था? और बड़ा था तो तब तक कोई दूसरा व्यक्ति आगे क्यों नहीं आया था। अगर हम इन दोनों चीजों को साथ रखकर देखेंगे तो शायद इस बात को समझ जाएंगे कि चिन्तन एक बात है, नेतृत्व दूसरी बात है। और संकल्प के साथ चिन्तन को मुक्त रूप दे देना, वह एक तपस्वी ही कर सकता है।

आचार्य तुलसी इस मामले में बहुत स्पष्ट थे कि बहुत सारे लोग शास्त्रों के शब्दों को पकड़ लेते हैं। धर्म को गौण मानते हैं। कुछ लोग होते हैं, जो धर्म को पकड़ लेते हैं और शास्त्रों के शब्दों को गौण मानते हैं। धर्म के जो आचार्य होते हैं वे धर्म के पक्ष में, धर्म की रक्षा में जो पक्ष सही लगता है, निर्णय लेने के अधिकारी होते हैं। इस मामले में आचार्य श्री को अफसोस था कि जब धर्म में सभी आदमी समान हैं, छोटा-बड़ा कोई नहीं है तो फिर भी हम इस बात का पालन नहीं कर पा रहे हैं। जब यह सम्मेलन हुआ तो निश्चित है कि उनको भी इस बात का अपार हर्ष हुआ होगा और हमें तो इस बात का गर्व है कि हरिजनों के सम्मेलनों में से आज वे बाहर निकलकर और दूर शिखर छू चुके हैं।

विनम्रता
आचार्य तुलसी के अन्दर एक और बड़ी बात थी जिसका असर किसी भी सामाजिक गठबन्धन / धार्मिक संगठन को चलाने के लिए आवश्यक है। उनके पास सारे अधिकार थे और बहुत से अधिकार उन्होंने अपने कर्मयोग से भी हासिल कर लिए थे। लेकिन समाज के हित में जब कोई बात या कोई जरूरत पड़ती तो वे अपने अधिकारों को छोडक़र झुकने को भी तैयार हो जाते थे। यह कोई आसान बात नहीं है। इसका एक सशक्त उदाहरण है, उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी ‘अग्नि परीक्षा’। उस पुस्तक का कई जगह बहुत विरोध हुआ था। कई जगह तरह-तरह के तनाव हुए।

उस पुस्तक के बारे में आचार्य श्री का कहना था कि इस में एक भी चीज ऐसी नहीं है, जो गलत है या अपमानजनक है बल्कि सभी प्रशंसावाचक हैं। लेकिन समाज का आक्रोश शांत ही नहीं हो रहा था। तब स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण ने आचार्य श्री को सलाह दी थी ‘इस वक्त माहौल सही नहीं है। मैं आपकी पुस्तक पूरी पढ़ चुका हूं। उसमें किसी तरह की कोई कमी या गलती नहीं है। लेकिन इस वक्त समाज के हित में यह है कि आप अपनी पुस्तक को विड्रॉ कर लें।’ आचार्य श्री ने तुरन्त निर्णय लिया और पुस्तक को बाजार से विड्रॉ कर लिया। वे समाज के हित में अपने अधिकारों को एक तरफ रखकर उस मर्यादा में जीना जानते थे कि हम कितने भी सही हों, लेकिन अगर कोई बात लोकहित के विरुद्ध है तो हमारे आचरण में नहीं रहनी चाहिए।