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क हा जाता है, 'जात न पूछो साधु की।Ó यानी साधु की कोई जाति नहीं होती। इसलिए उससे उसकी जाति के बारे में नहीं पूछी जानी चाहिए। इसके विपरीत हमारे यहां एक 'कहावतÓ राजनीति में खासा स्थान रखती है। 

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Moti ram

Jul 16, 2015

क हा जाता है, 'जात न पूछो साधु की।Ó यानी साधु की कोई जाति नहीं होती। इसलिए उससे उसकी जाति के बारे में नहीं पूछी जानी चाहिए। इसके विपरीत हमारे यहां एक 'कहावतÓ राजनीति में खासा स्थान रखती है।

वो है 'जाति पूछो नेता की।Ó अर्थात राजनीति चलती ही जाति के भरोसे है। हर राजनीतिक दल जातिवाद का विरोध भी करता है लेकिन उसके बगैर रह भी नहीं सकता है। अधिकांश मामलों में योग्यता पर जातिवाद भारी पड़ता नजर आता है। टिकटों के बंटवारे में जातिवाद चलता है तो मंत्री बनाने में भी।

कोई जाति के आसरे ही अपना दल चलाता है तो कोई ऐसे दलों से समझौता कर पर्दे के पीछे से जातिवाद को बढ़ाता है। आजादी के सात दशक बाद भी जातिवाद का बंधन टूटने की बजाए मजबूत होता जा रहा है।आखिर क्या है जाति की कड़वी हकीकत और कैसे टूटे यह बंधन, इसी पर आज का स्पॉटलाइट।

एन. के. सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
आजादी के 68 साल बाद भी राजनीति वर्ग की कथनी और करनी में व्यापक अंतर बना हुआ है बल्कि यह पहले से बढ़ा है। यह वर्ग जनसभाओं में भले ही जनता की रहनुमाई का दावा करे पर जब कमरे में कोर गु्रप की मीटिंग में टिकट बांटने के लिए बैठता है तो उसके मन में सिर्फ एक ही आधार होता है - जाति। यानी किस चुनाव क्षेत्र में किस जाति का बाहुल्य है और कौन प्रत्याशी जाति समीकरण में फिट बैठता है।

जाति पर नैतिकता बलिदान
क्या किसी सभ्य, शिक्षित और तार्किक समाज में यह विश्वास किया जा सकता है कि किसी पार्टी के 10 साल सत्ता में बने रहने का एक मात्र कारण जाति हो। इसी प्रकार दूसरी पार्टी के पूर्ववर्ती कुशासन की याद दिलाना और उससे छुटकारा दिलाने का वादा करते रहना एवं फिर उसी पार्टी से हाथ मिलाने को तर्क-संगत बताना।

राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव और जनता दल (यू) के नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक-दूसरे से गले मिलना जाति-समीकरण की बेदी पर नैतिक और सिद्धांत आधारित राजनीति के बलि देने जैसा है। कोई रामबिलास पासवान, जो भाजपा को वर्षों से लानत-मलानत कर रहे हों अचानक इस पार्टी की गोद में बैठ जाते हैं और इतना हीं नहीं अपनी पूर्ववर्ती मित्र पार्टी को पानी पी-पीकर कोसने लगें तो यह प्रजातंत्र का मखौल नहीं तो और क्या है।

जब कोई रामकृपाल अपने नेता लालू को भगवान और अपने को 'हनुमानÓ बताते-बताते भाजपा की गोद में बैठकर उसी भगवान को कोसना शुरू करे और भाजपा के नेता इसे अच्छी राजनीति बताएं तो इस क्षरण का कारण समझना मुश्किल नहीं है। भारतीय समाज में गरीबी, अशिक्षा व सामंतवादी अवशेषों की वजह से इस पूरी अवधारणा को पटरी से उतार दिया गया।

फस्र्ट पास्ट द पोस्ट (एफपीटीपी) पद्धति की जो सबसे बड़ी खराबी अब तक देखने में यह आई कि यह पद्धति समाज को विभाजित करती है और यह विखण्डन की प्रक्रिया तब तक नहीं रुकती जब तक कि सबसे छोटा पहचान या जाति समूह भी विखण्डित नहीं हो जाता।

उदाहरण के तौर पर एक विधानसभा क्षेत्र में मान लीजिए नौ प्रत्याशी हैं, जिनमें से आठ को 9000 के आस-पास वोट मिले हैं पर नौवें प्रत्याशी को 9005 हजार वोट मिले हैं, नौवां प्रत्याशी विजयी घोषित होगा। हालांकि 88 प्रतिशत मतदाताओं ने उसे खारिज किया है।

अगले चुनाव में सभी आठों प्रत्याशी इस बात की कोशिश में लग जाएंगे कि किसी तरह से छोटे-छोटे पहचान/जाति समूहों की भावनाओं को उभारा जाए और कोशिश की जाए कि किस तरह महज छह प्रतिशत वोट और बढ़ाए जाएं ताकि अगले चुनाव में जीत हासिल हो।

जागो मत, '...ताड़ी पियो मस्त रहोÓ
राजनीति शास्त्र की अवधारणाओं का एक अन्य पहलू होता है, जिसके तहत प्रजातंत्र में राजनीतिक दल के स्वीकार्यता की एक शर्त होती है कि उसका अपना एक काडर हो। पर भारत में कुछ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को छोड़कर किसी क्षेत्रीय दल को यह जहमत उठाना गंवारा न था। उसका कारण यह था कि काडर खड़ा करने के लिए सैद्धान्तिक संबल की जरूरत होती है, जिसका क्षेत्रीय दलों में सर्वथा अभाव रहा।

इस अभाव को पूरा करना बहुत आसान था, जब इन दलों के नेताओं ने पहचान समूह के साथ अपने को जोड़ा और उनमें सशक्तीकरण की एक झूठी चेतना जगाई। अगर 'मंदिर वहीं बनाएंगेÓ के नारे से भाजपा ने अपनी 'दुकानÓ खड़ी की तो मुलायम ने अपने आदमियों से 'परिंदा भी पर नहीं मार पाएगाÓ कहलवाकर अपना धंधा रातों-रात चमकाया। 'तिलक-तराजूÓ का नारा इसी दौर में आता है।

मुलायम सिंह ने अपने शासन-काल में पी.ए.सी की भर्ती में यादवों को भरना शुरू किया, बसपा सुप्रीमो मायावती ने मंच से कहना शुरू किया- देखो आज जिले के इतने कलक्टर और इतने कप्तान दलित वर्ग के हैं। लालू यादव ने भरे दरबार में सवर्ण मुख्य सचिव को जब बड़े-बाबू कहते हुए उपहास के लहजे में बोला तब उनका एक बड़ा वर्ग जो सदियों से दबा-कुचला था, अचानक से अपने को सशक्त समझने लगा।

हेलीकॉप्टर से उतरकर लालू यादव ने चुनाव के दौरान यादव बाहुल्य राघोपुर में एक जनसभा में सिर्फ तीन मिनट का भाषण दिया। 'अब यहां पेड़ से ताड़ी उतारते हो तब कोई टैक्स तो नहीं मांगता ना?Ó उत्साहित भीड़ का जवाब था - ना साहिब।

लालू ने दूसरा सवाल दागा - 'नदी से मछली मारते हो तब कोई सरकारी आदमी कुछ कहता तो नहीं?Ó जनता से जवाब आया- 'जी, नाÓ। लालू यादव की अगली सलाह थी- 'खूब ताड़ी पियो, मछली खाओ, मस्त रहोÓ। हेलीकॉप्टर का रॉटर नाचा और लालू यादव उड़ गए। उस विधानसभा से उनको जबर्दस्त जीत हासिल हुई।

जिन्होंने बांटा वे बाहर
सशक्तीकरण की झूठी चेतना के लिए सामाजिक न्याय के इन पुरोधाओं ने राज्य के संवैधानिक व कानूनी संस्थाओं को तोडऩा-मरोडऩा शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि कप्तान व एसपी अपमान से बचने के लिए सजदे के भाव में आ गए। कलक्टर और एसपी ने बहनजी की चप्पल उठाना शुरू किया। ऐसा लगने लगा कि पूरा शासन और कानूनी व्यवस्था इन तथाकथित सामाजिक न्याय के पुरोधाओं के अधीन हो गई है।

इसी बीच दो राष्ट्रीय दल, कांग्रेस और भाजपा ने अपना राजनीतिक धरातल छोडऩा शुरू किया। स्थिति यहां तक आ गई कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के वोट महज सात से आठ प्रतिशत रह गए तो बीजेपी को 14 से 16 प्रतिशत। अगर देशभर में देखें तो जहां कांग्रेस 2009 के चुनाव में 27 प्रतिशत वोट हासिल कर सकी, वहीं भाजपा सिर्फ 18 प्रतिशत। उधर दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों को 50 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले। दरअसल समाज को बांटने वाले खेल की शुरुआत करने के बाद भाजपा और कांग्रेस खुद ही बाहर हो गए।

हालांकि इस मामले में 2014 का चुनाव अलग रहा, जिसमें पहली बार दोनों राजनीतिक दलों को मिले मत का कुल योग लगभग 50 प्रतिशत था। यानी जाति-आधारित क्षेत्रीय दल पहली बार जनाधार खोते दिखे और भाजपा ने देश के 52 प्रतिशत लोगों पर राज्यों के जरिए शासन करना शुरू किया। कांग्रेस मात्र 8 प्रतिशत लोगों पर आज शासन कर रही है।

भारत में कुछ राष्ट्रीय दलों को छोड़कर क्षेत्रीय दलों ने अपना काडर खड़ा करने की जहमत नहीं उठाई क्योंकि इसके लिए सैद्धान्तिक संबल की जरूरत होती है। जिसका इनमें सर्वथा अभाव रहा। इस अभाव को पूरा करना बहुत आसान था, जब इन दलों के नेताओं ने पहचान/जाति समूह के साथ अपने को जोड़ा और उनमें सशक्तीकरण की एक झूठी चेतना जगाई।

अब टूटने लगा है तिलिस्म
समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के हिसाब से भावनात्मक मुद्दों की राजनीति की एक मियाद होती है। अगर किसी पहचान समूह की तर्कशक्ति व शिक्षा का स्तर शुरू से ही अपेक्षाकृत बेहतर रहा है तब वह जल्दी ही समझ जाता है कि सशक्तीकरण झूठा था, भावनाएं सिर्फ अपनी रोटी सेंकने के लिए जगाई गई थी और तब उसका मोहभंग होता है। बिहार में यही हुआ।

उत्तरप्रदेश में भी जिन-जिन जिलों में दलित शिक्षा बेहतर हुई है, वहां बहुजन समाज पार्टी को अपेक्षाकृत कम मत मिले हैं। आज उत्तरप्रदेश में ही नहीं बल्कि उत्तर भारत में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग है, जो पहचान समूह की राजनीति से हटकर सभी दलों से पूछ रहा है, मुझे अपनी जाति का कप्तान और कलक्टर देने के बजाय घर के सामने सड़क दो। यानी विकास को तरजीह देने की एक नई शुरुआत हुई है।

इसे प्रजातंत्र के लिए यह एक नया संकेत माना जा सकता है। बिहार में हाल में हुए विधानपरिषद के चुनावों में लालू-नीतीश की अपेक्षाकृत शिकस्त इस बात का सबूत है कि लालू यादव का जाति पर वर्चस्व कम हो रहा है और यादव केवल जाति नहीं जनता भी बन रहे हैं। शायद शिक्षा और तर्क शक्ति बढऩे से जाति-आधारित संकीर्ण राजनीति आने वाले दिनों में कम होने लगे।