
film awards
- दीपक महान, वृत्तचित्र निर्माता
कृष्ण और सुदामा से प्रेरित भारतीय संस्कृति में मेहमान को भगवान् का रूप समझा जाता है। वही मेहमान यदि राष्ट्र को गौरवान्वित करने वाला हो तो उसे सिर आंखों पर बैठाया जाता है। लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने वाली केन्द्र सरकार ने जिस तरह से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह की गरिमापूर्ण परम्पराओं को तोड़ा है, उससे तो ऐसा ही लगता है कि विशिष्ट मेहमानों को जानबूझकर अपमानित किया गया है।
पिछले पैंसठ वर्षों से देश के राष्ट्रपति इस समारोह में सभी कलाकारों को पुरस्कृत करते थे तो इस बार क्या हुआ कि ऐन वक्त पर निर्णय बदल, राष्ट्रपति से सिर्फ ग्यारह जनों को ही पुरस्कार दिलवाया गया। यह अनुचित तो है ही, उपेक्षित किए गए कलाकारों के आत्मसम्मान को ठेस भी पहुंचाने वाला कदम है। ऑस्कर विजेता रेसुल पोकुटी का कथन सही है - ‘अगर सरकार राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए तीन घंटे का समय नहीं निकाल सकती, तो उसे फिल्म पुरस्कार ही बंद कर देना चाहिए।’ कलाकार का सृजन, सम्मान का मोहताज नहीं होता - वह सिर्फ उसकी प्रेरणा, व्यथा, और समग्र दृष्टि का संगम होता है। सरकारी सम्मान कलाकार को गौरवान्वित करके उसे सिर्फ सार्वजनिक तौर पर व्यापक पहचान दिलाते हैं।
भारत के सरकारी पुरस्कारों की विश्वसनीयता पर भले ही कई प्रश्नचिह्न हों, फिर भी पुरस्कार समारोहों में केवल अलंकरणों का वर्गीकरण अलग-अलग श्रेणियों में किया जाता रहा है। पुरस्कार विजेताओं के साथ सार्वजनिक मंच पर भेदभाव नहीं किया जाता। इसीलिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय के इस निर्णय की भत्र्सना हो रही है। हमें समझना होगा कि हर युग में समाज को नैतिक नेतृत्व, सच्चाई और समझदारी का रास्ता तथा दमन से लडऩे की ताकत बिरले कलाकार ही देते हैं। इसीलिए कुछ निर्भीक कलाकारों द्वारा समारोह के बहिष्कार के फैसले को भी गलत नहीं माना जा सकता।
आज जब हर तरफ पैसे, झूठ और ताकत का बोलबाला है, ऐसे में अन्याय और भेदभाव के प्रति असहमति प्रकट करने के लिए लेखकों और कलाकारों के पास अपनी सृजनात्मक सोच के अलावा और विकल्प ही क्या है? अफसोस यह है कि सरकारी पैसे से चलने वाली व्यवस्था में नामचीन कलाकारों ने बहिष्कार करने वालों का साथ नहीं दिया वर्ना सरकार को तर्कहीन निर्णय बदलना पड़ता। नागरिक समूहों की चुप्पी का नुकसान समाज को ही होता है।

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