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घर के यज्ञ में पड़ोस की आहुति

शी दुनिया भर में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने में, तो मोदी देश को कांग्रेस मुक्त बनाने में।

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Sunil Sharma

May 05, 2018

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- योगेंद्र यादव, विश्लेषक

अगर विक्रम-बेताल की कहानी होती तो बहुत अच्छा सवाल बनता था। आखिर चुनावी साल में तमाम व्यस्तताओं के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अचानक चीन क्यों गए? वह भी एक अनौपचारिक बातचीत के लिए? जबकि कुछ सप्ताह बाद उन्हें दोबारा चीन जाना ही था? और, आखिर मोदी जी ने शी जिनपिंग को घोड़े की पेंटिंग क्यों भेंट की? इन सीधे सवालों का जवाब मोदी-शी वार्ता के बारे में तमाम अखबारी विश्लेषणों में जब मुझे नहीं मिला, तो लगा कि इनका सीधा जवाब ढूंढना चाहिए।

पाकिस्तान की फौज कितनी भी खुराफात कर ले, सच यह है कि पाकिस्तान के पास आर्थिक हैसियत, सामरिक क्षमता और दीर्घकालिक सोच, तीनों का अभाव है। श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल से संबंध की मिठास घटने-बढऩे की चुनौती है, लेकिन सुरक्षा की चुनौती नहीं है। हमारे पड़ोस में सिर्फ चीन है जिसके पास आज अपूर्व आर्थिक ताकत, सामरिक क्षमता और अगले सौ सालों के बारे में सोचने की क्षमता है। इसलिए जब भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति मिलते हैं तो यह दीर्घकालिक महत्व का सवाल बनता है। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी की मुलाकात कोई साधारण समय में नहीं हो रही थी। पिछले कुछ साल भारत-चीन संबंध में तनातनी के रहे हैं। अमरीका चाहता है कि चीन के खिलाफ एक बड़ा गठबंधन खड़ा करने में भारत उसका पार्टनर बने।

उधर, भारत सरकार चीन के आर्थिक विस्तार से चिंतित रहती है। चीन की महत्त्वाकांक्षी योजना ‘बेल्ट’ में भी भारत सरकार ने अड़ंगा लगा दिया। यह दबी-छुपी तनातनी डोकलाम में खुलकर सामने आई। बात सुलट गई, पर तब भारत सरकार ने कुछ ऐसा प्रचार किया कि चीनी फौज को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया हो। बात सच नहीं थी, और ये प्रचार चीन को अखर गया। अब पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी एक बात है और चीन का सामना करना दूसरी बात। यहां विदेश नीति में अनुभवहीनता और बड़बोलापन भारी पड़ गया। तभी से चीन ने सैनिक तैयारी शुरू कर दी। सुरक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक, चीन ने डोकलाम के नजदीक सैनिक जमावड़ा कर लिया है, सडक़ें बेहतर कर ली हैं और सात हेलीपैड बना लिए हैं।

आशंका पैदा हुई कि इस साल चीन डोकलाम में बेहतर तैयारी के साथ एक सीमित और सांकेतिक बदला ले सकता है। आज हमारी स्थिति इतनी कमजोर नहीं है जितनी 1962 में थी, लेकिन चीन के हमले के क्या परिणाम हो सकते हैं यह समझना मुश्किल नहीं है। इसीलिए मोदी सब कुछ छोड़ चीन गए थे। यह सिर्फ मेरा कयास नहीं, दबी-छुपी शालीन भाषा में विदेश नीति विशेषज्ञ भी यही कह रहे हैं। पिछले दो-तीन माह से भारत सरकार चीन को मनाने में जुटी है। मालदीव में राजनीतिक उथल-पुथल और हस्तक्षेप की अपील के बावजूद चीन की नाराजगी के डर से भारत सरकार ने वहां कोई हस्तक्षेप नहीं किया। ‘मालाबार’ नौसैनिक अभ्यास से चीन के इशारे पर ऑस्ट्रेलिया को बाहर रखा गया। दलाई लामा और साथ आए तिब्बती शरणार्थी धन्यवाद करने के लिए आयोजन करना चाहते थे, तो सरकार ने आयोजन को दिल्ली से हटवाया और किसी भी सरकारी अफसर या मंत्री को आयोजन में उपस्थित न होने के निर्देश दिए।

मुलाकात हुई क्या बात हुई? यह तो वक्त बताएगा कि चीन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात को किस हद तक माना। संभव है कि चुनावी वर्ष की मजबूरियों और दुश्वारियों को भांपते हुए चीन ने भी वैश्विक मोर्चे पर मोदी सरकार से कुछ ठोस आश्वासन लिए होंगे। फिलहाल, दोनों तरफ के बयान से लगता है कि कुछ तो हासिल हुआ है। सवाल है कि चीन की इसमें क्या गरज है? दुनिया को सुनाने के लिए हम सभ्यता के पुराने रिश्ते की चाहे कितनी भी दुहाई दें, सच यह है कि चीन को इससे कोई मतलब नहीं है। व्यापार और आर्थिक संबंध गहरे हों, इसके लिए चीन व्यग्र नहीं है। उसकी अर्थव्यवस्था भारत के बिना भी चलती है। चीन की असली चिंता यही है कि वैश्विक स्तर पर अमरीका, जापान और अन्य कुछ सहयोगी मिलकर उसके विरुद्ध जो खेमा बना रहे हैं, भारत कहीं उसमें शामिल न हो जाए।

दोनों के बीच क्या समझ बनी, यह तो हम नहीं जानते लेकिन यह जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने चीन के राष्ट्रपति को एक चीनी चित्रकार शू बाईहोंग की पेंटिंग भेंट की। कभी शांतिनिकेतन में रहे इस चित्रकार की पेंटिंग में उन्मुक्त घोड़े हैं। क्या यह मात्र संयोग है कि यह दोनों नेता इस वक्त अपने-अपने तरह के अश्वमेध यज्ञ में जुटे हैं? चीन के राष्ट्रपति दुनिया भर में चीन का आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने में जुटे हैं तो भारत के प्रधानमंत्री फिलहाल देश को कांग्रेस मुक्त बनाने में जुटे हैं। क्या यह पेंटिंग एक इशारा थी एक-दूसरे के यज्ञ में साथ देने और विघ्न नहीं डालने की? इसका तात्पर्य अगले चुनाव तक डोकलाम और पाकिस्तान मामले में चीन से चुप्पी की अपेक्षा से लगाया जा सकता है। यदि आपसी समझ बनती है तो भारत को क्या हासिल होगा? यह सवाल और भी बड़ा है और इसका उत्तर विक्रम से बेताल को अगली बार मांगना होगा।