
indian farmer
- भारत डोगरा, वरिष्ठ पत्रकार
हाल के समय में किसान संकट तेज होने के साथ खेती-किसानी की समस्याओं पर चर्चा पहले से कहीं अधिक हो रही है, पर यह चर्चा बहुत संतुलित नहीं हो सकी है। इस चर्चा में बार-बार यह जिक्र होता है कि किसानों की उपज के मूल्य को बढ़ाना जरूरी है और इस संदर्भ में स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों का जिक्र भी अवश्य किया जाता है। दूसरी ओर, इस ओर कम ही ध्यान दिया जा रहा है कि खेती-किसानी का खर्च कम करना जरूरी है, जबकि हरित क्रांति के बाद ही किसानों का रासायनिक खाद, कीट व खपतवारनाशकों आदि पर खर्च बहुत तेजी से बढ़ा व आज तक बढ़ता ही जा रहा है।
वास्तव में किसान की आर्थिक स्थिति उसकी निवल आय से ही पता चलती है। हाल के दशकों की एक मुख्य समस्या यह रही है कि खर्च बहुत तेजी से बढ़ा है। भारत में अधिकांश छोटे किसान हैं जिन्हें कर्ज अधिक लेना पड़ता है। जलवायु बदलाव के चलते फसल की क्षति और फसल बीमा योजनाओं के उचित क्रियान्वयन के अभाव में उनके लिए कर्ज तो क्या, ब्याज चुकाना भी कठिन हो जाता है और कर्ज का बोझ बढ़ता जाता है।
हाल की चर्चा को देखें तो यह सब मुद्दे बहुत कम उठ रहे हैं। बस कहा जा रहा है कि कीमत बढ़ाओ व कर्ज माफ करो। कर्ज बढ़ाने वाली व्यवस्था बनी रही तो कर्ज फिर लौट आएगा। खर्च तेजी से बढ़ाते रहे तो कीमतें कब तक बढ़ाई जाएंगी। जरूरी है कि बुनियादी व टिकाऊ सुधारों की बात हो, समुचित उत्पादकता बनाए रखते हुए खर्च न्यूनतम करने के प्रयास हों। परंपरागत कृषि ज्ञान-विज्ञान इसमें बेहद सहायक हो सकता है। यह भी संभव है कि खेती को जीरो बजट के नजदीक लाया जा सके। इससे जैविक उत्पादन बढ़ेगा और सामान्य से अधिक कीमत भी सुनिश्चित होगी। स्वास्थ्य समस्याएं कम होंगी और इलाज का खर्च भी कम होगा। कुछ लोग केवल जैविक खेती की बात करते हैं। पर इसमें भी मुनाफाखोरी उभर रही है व सर्टिफिकेशन के महंगे तौर-तरीके आ रहे हैं।
दूसरी बड़ी बात यह कि किसानों के साथ खेत-मजदूरों व भूमिहीन किसानों को भी कुछ भूमि उपलब्ध हो। तीसरी खास बात यह कि अर्थव्यवस्था के ढांचे में ऐसा बदलाव हो जिससे कि गांवों-कस्बों की आजीविका में विविधता आए व कई तरह के, विशेषकर दैनिक जरूरतों को पूरा करने वाले, लघु व कुटीर उद्यम पनप सकें। यदि यह प्रयास होते हैं तो कृषि संकट व गांवों के आर्थिक संकट को स्थायी तौर पर हल किया जा सकता है।

Published on:
04 May 2018 09:45 am
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