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निजी गोद में धरोहर

धरोहर गोद देने की योजना तभी सार्थक होगी, जब सच्चा धरोहर संरक्षण होगा, सुविधाएं विकसित होंगी और उन्हें देखने का शुल्क न के बराबर होगा।

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Sunil Sharma

May 01, 2018

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राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय धरोहर की एक चाबी निजी हाथों में चली जाएगी। सरकार के इस फैसले से एक तरफ यह लगता है कि सुविधाओं के लिहाज से उपेक्षित स्मारकों के दिन बहुरेंगे। दूसरी ओर यह चिंता भी होती है कि स्मारकों की सूरत-सीरत पूरी तरह व्यावसायिक हो जाएगी। भारत धरोहरों से संपन्न देश है। यहां ३६८६ पुरातत्व धरोहर, ३६ विश्व धरोहर और ११६ एएसआई स्मारकों को ‘अडॉप्ट ए हेरिटेज’ योजना के तहत गोद देने के फैसले में लाल किले को शामिल करना कारगर होगा, ऐसा लगता नहीं। उचित तो यही होता कि पुरातत्व, संस्कृति और पर्यटन विभाग मिलकर इस धरोहर को संभालते। अब तीनों विभाग मिलकर निजीकरण के रास्ते दूसरे स्मारकों में भी सुविधाएं विकसित करने में जुटे हैं।

यह कितना सही है और कितना गलत, यह तो भविष्य ही बताएगा। लाल किले को निजी क्षेत्र को गोद देने के पक्ष में तीन तर्क दिए जा रहे हैं। पहला, देश में लूटपाट व टूट-फूट का शिकार हो रहे स्मारकों की संख्या बहुत है। जब कोई निजी कंपनी स्मारक संभालेगी, तो स्थितियां सुधर सकती हैं। दूसरा, गोद गए स्मारकों की बेहतर साफ-सफाई होगी, वहां जन सुविधाओं का विकास होगा और पहुंचने के रास्ते सुगम होंगे। तीसरा यह कि यदि सरकार के पास धरोहरों के लिए पैसे या संसाधन नहीं हैं, तो धरोहर गोद देने का फैसला उचित साबित हो सकता है।

हालांकि इस योजना की क्रियान्विति को लेकर कुछ मजबूत आशंकाएं भी हैं। पहली, कहीं ऐसा न हो कि देश के स्मारकों पर निजी कंपनियों के नाम व बैनर-पोस्टर हावी हो जाएं। कहीं ऐसा न लगे कि हम लालकिले में नहीं, डालमिया किले में घूम रहे हैं? दूसरी, सरकार मुफ्त में ही धरोहर गोद दे रही है। धरोहर से जो भी कमाई होगी, वह गोद लेने वाली कंपनी रखेगी। तीसरी, धरोहर मित्र न केवल धरोहर से कमाई कर सकेंगे, बल्कि वे इसे अपनी सीएसआर गतिविधि के तहत दिखाएंगे। चौथी आशंका यह भी है कि सरकार का खर्च नहीं घटने वाला, क्योंकि स्मारक का संरक्षण उसे ही करना है। धरोहर मित्र केवल सफाई व सुविधाएं विकसित करेंगे। कुल मिलाकर, सफलता तब है, जब धरोहरों का सच्चा संरक्षण हो। आम आदमी तो यही उम्मीद करेगा कि धरोहरों को देखने का शुल्क खत्म हो जाए या बहुत कम हो जाए।