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सत्ता से विचार की दूरी

दुनिया के लिए भारत ऐसा डंपयार्ड है जहां प्रतिबंधित दवा से लेकर हथियार तक बेचे जा सकते हैं, बशर्ते शासन करने वाले साथ हों। उनके लिए भारत बहुधा खनिजों की लूट का सामान है।

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Sunil Sharma

Aug 27, 2018

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- पुण्य प्रसून वाजपेयी, वरिष्ठ पत्रकार

केरल के संकट को राष्ट्रीय आपदा क्यों नहीं माना गया? क्योंकि वहां भाजपा की सरकार नहीं? बिहार के मुज्जफरपुर से लेकर आरा तक जो लड़कियों और महिलाओं के साथ हुआ, उसे जंगलराज नहीं मानेंगे क्योंकि वहां की सत्ता भाजपा के साथ है? पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार भाजपा के लाउडस्पीकरों की आवाज बंद कर देती है, क्योकि वहां भाजपा उससे राजनीतिक स्तर पर दो-दो हाथ कर रही है?

उत्तरप्रदेश में एनकाउंटर-दर-एनकाउंटर होने के बावजूद कोई सवाल नहीं उठते, चाहे उन पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ही आवाज क्यों न लगाता हो। इसलिए कि योगी की सत्ता केंद्र की सत्ता का ही विस्तार है? किसान-मजदूर, स्वदेशी, महिला, आदिवासी सरीखे दर्जनों मुद्दे जो सीधे समुदाय से जुड़े हैं और कल तक संघ के काम से जुड़े थे, लगता है उनको भी सत्ता की नजर लग गई है। यानी जो सत्ता करे, उसे ठीक मान लीजिए। सत्ता चाहे किसी की हो।

शिक्षा का मामला हो या स्वास्थ्य का, रोजगार का सवाल हो या किसानी का, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध हों या दलित उत्पीडऩ के मामले - हर सवाल का जवाब खोजना हो तो राजनीतिक सत्ता के दरवाजे पर दस्तक देनी होगी। चाहे-अनचाहे सारे सवाल उस राजनीति से टकराएंगे, जो मुद्दों के समाधान की जगह मुद्दों को ही हड़पकर सत्ता पाने या पाई हुई सत्ता न गंवाने की दिशा तय करती है।

तो क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश वाकई उसी सिस्टम को जीने लगा जिसका नाम है चुनावी लोकतंत्र? आज चुनाव ही हमारे यहां देश का खाका बनाते हैं। चुनाव राजनीतिक दलों के भीतर रोजगार पैदा करते हैं। जीतने वाले का राजनीतिक घोषणापत्र ही देश का संविधान हो जाता है। चुनाव में सत्ता के लिए काम करना ही संवैधानिक संस्थाओं का मूल धर्म हो गया है। चुनावी तौर-तरीके ही देश में कानून का राज बताने या दिखाने के लिए काम करते हैं। आजादी के बाद से धीरे-धीरे लोकतंत्र की समूची खुशबू मात्र जिस तरह चुनावी राजनीति में जा सिमटी है, उसमें अब देश का मतलब महज चुनाव रह गया है और चुनाव का मतलब ही है निपट सत्ता की होड़।

नेहरू का समाजवाद हो या वर्गसंघर्ष का सवाल उठाने वाला वामपंथी विचार, या हिन्दुत्व का नारा लगाते स्वयंसेवकों से निकला जनसंघ, और फिर बीजेपी। सबका ध्येय घोषित सरोकारों से उठकर सत्ता में जा सिमटा है। यह सही है कि दलों के नेताओं ने देश की जनता को कुछ हद तक उनकी विचारधारा को राजनीतिक तौर पर मथने का वक्त दिया है। पर आगे जब विचार ही सत्ता पाना हो जाए, तब क्या होगा? इमरजेंसी के बाद मोरारजी की सत्ता को उनके साथी सत्ताधारी ही चुनौती देने लगे, क्योंकि उनका लक्ष्य आपातकाल से बिगड़े हालात को बदलना नहीं, बल्कि सत्ता हासिल करना था। और देश की राजनीति चरण सिंह, बाबू जगजीवनराम से होते हुए जनता पार्टी से जुड़े स्वयंसेवकों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गई।

वीपी सिंह बोफोर्स घोटाले की आग में हाथ सेंकते हुए सत्ता पा गए, पर देश को घोटालों या भ्रष्टाचार से बाहर नहीं ला पाए। मंडल-कमंडल की आग जाति-धर्म को वोट बैंक बना कर सत्ता का खेल सिखा गई। क्षत्रपों की पूरी कतार ही राष्ट्रीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और उनके नेताओं को हराने में इसलिए सक्षम हो गई क्योंकि विचारधारा किसी के पास बची ही नहीं। कोई विचार नहीं बचा जो भरोसा पैदा करे कि देश कैसे गढऩा है। कोई सोच बची नहीं कि देश में उसके सांस्कृतिक मूल्य भी मायने रखते हैं।

राजपाट के इस मोहपाश में संस्थाएं पहले सत्तानुकूल हुईं, फिर उनका ढहना शुरू हो गया। सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, सतर्कता आयोग, सीबीआइ, सीआइसी, यूजीसी जैसे संवैधानिक या स्वायत्त संस्थान ही नहीं ढहे, बल्कि भविष्य में कैसे भारत को गढ़ा जाए, इस पर निर्णायक असर डालने वाली शिक्षा व्यवस्था भी भटकी राह पर चल निकली। क्या पढ़ाया जाए, यह पूरी तरह सत्ता की निगरानी में आ गया। और असर इसी का है कि मौजूदा वक्त में भारत दुनिया का नंबर एक देश है जहां से सबसे ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा के लिए देश छोड़ रहे हैं। और दूसरी तरफ भारत दुनिया का नंबर एक देश है जो बच्चों को समुचित प्राथमिक शिक्षा दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है।

जाति, धर्म, संप्रदाय से जुड़ा कोई भी मुद्दा हो या फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसान-मजदूर, महिला समाज, दलित-अल्पसंख्यक का मुद्दा, किसी राजनीतिक पार्टी के पास क्या कोई साफ विचार नहीं कि वे कैसा नया भारत गढऩा चाहती हैं। चुनावी घोषणापत्र भी कमोबेश एक-जैसे लोकलुभावन वादों से लदे होते हैं, जो कभी पूरे नहीं हो पाते हैं।

दुनिया के लिए भारत एक बाजार है, जहां बड़ी जनसंख्या के कारण बड़ा तबका उपभोक्ता है। भारत का मतलब ऐसा डंपयार्ड है जहां प्रतिबंधित दवा से लेकर हथियार तक बेचे जा सकते हैं, बशर्ते शासन करने वाले साथ हों। उनके लिए भारत बहुधा सस्ते मजदूरों, मुफ्त का इन्फ्रास्ट्रक्चर, खनिजों की लूट का सामान है। मौजूदा वक्त में जब देश का विचार साफ नहीं, तब बाजार में ऐसी ही विचारधारा का बाजार स्वाभाविक है।