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धर्मस्य ग्लानि!

मन्दिरों के लिए विभाग, मस्जिदों/तीर्थों में सरकारी कमेटियां, गुरुद्वारों, गिरजाघरों में क्या? जिनको सरकार धर्म मानती है, मान्यता देती है, तब समान व्यवहार क्यों नहीं?

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Gulab Kothari

Apr 29, 2021

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- गुलाब कोठारी

व्यक्ति सदा अपने किए का फल ही भोगता है। न तो उसके किए का फल दूसरा कोई भोग सकता, न ही वह किसी अन्य के किए का फल भोगता है। यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि कहने को तो यह विश्व का महान लोकतंत्र है, किन्तु यहां जनता जितनी त्रस्त है, उतनी अन्य लोकतंत्र में नहीं होगी। वह भी अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कारनामों से। आज जनप्रतिनिधि सत्ता में आकर रातोंरात या तो अंग्रेजों के कपड़े पहन लेते हैं या फिर महाराजाओं के। जनता आज भी वहीं है, जहां आजादी के पहले थी। बल्कि आज की तरह आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) नहीं थी।

लोकतंत्र में समानता का अधिकार नहीं है। न ही किसी तरह का चिन्तन दिखाई पड़ता है, उधर आगे बढऩे का। दूसरी ओर, सरकारें सेवा-कर्म की आड़ में व्यापारी होती जा रही हैं। राजस्व वसूली में अतिरिक्त आय के पीछे पड़ी रहती है। रिश्वत की आय तो निजी सम्पत्ति बन जाती है।

समान नागरिक संहिता की मांग वर्षों से सुनाई दे रही है। कश्मीर अभियान का भी मुख्य आधार तो यही था। संविधान भी धर्म निरपेक्षता को प्रेरित करता है। हमारी शिक्षा एवं साम्प्रदायिक मानसिकता ने धर्म को ही बाहर निकाल दिया। यह भी एक दिखावा ही है। आज इस देश में धर्म के नाम पर जितनी छुट्टियां हैं, किसी अन्य देश में नहीं मिलेंगी। स्वैच्छिक हो जानी चाहिए। राजनीति दोगली रही है। ऐसा कर नहीं सकती। संविधान से देवताओं/अवतारों के चित्र हटा सकती है। धर्म और सम्प्रदायों के नाम पर आरक्षण दे सकती है। संविधान से जाति प्रथा हटाकर जनगणना में सम्मिलित कर देती है। कौन नहीं जानता कि चुनावों में टिकट भी जाति-धर्म के नाम पर दिए जाते हैं। धर्म के नाम पर हर जगह देश की संस्कृति को धूमिल कर गौरवान्वित होते हैं।

सबसे बड़ा उदाहरण है-देवस्थान विभाग। कहने को देवस्थान विभाग ने प्रत्यक्ष प्रभार, सुपुर्दगी, आत्मनिर्भर व ट्रस्टों से संचालित मंदिरों के रूप में विभाजन कर रखा है। इनके भी जो मापदण्ड हैं वे बरसों से बदले ही नहीं। सारे मंदिर भले ही न हो लेकिन देवस्थान विभाग ने बड़ी संख्या में इन्हीं श्रेणियों के हिन्दू मन्दिरों पर कब्जा कर रखा है। इन मंदिरों की सम्पत्तियां तक खुर्द-बुर्द कर दी गई। नियमित आय कौन खा रहा है? आभूषण-शृंगार सामग्री असली के स्थान पर कई जगह नकली तक आने की चर्चाएं हैं। धन के अभाव में भगवान के न भोग लग रहा, न ही शृंगार की व्यवस्था हो पाती। अफसर विलासिता में डूबते गए।

प्रश्न तो यह है कि एक धर्म निरपेक्ष सरकार में देवस्थान विभाग ही क्यों? वह भी सरकारी नियंत्रण में? क्या संविधान में हिन्दुत्व को अलग से सरकार का अंग माना गया है? ऐसा नहीं है। तब अन्य धर्मों के धार्मिक स्थान, प्रार्थना गृह सरकार के नियंत्रण में क्यों नहीं? अथवा वे भी देवस्थान विभाग के नियंत्रण में क्यों नहीं? क्या यह समानता का नजरिया माना जाएगा? चोर मानसिकता है। अंग्रेजों का कारण कुछ और रहा था, हमें तो सिर्फ खाना है। वैसे भी संस्कृति और परम्पराओं से अधिकारी भिज्ञ भी नहीं होते।

पिछले सत्तर सालों में कितनी रकम सरकारें डकार गईं। अरबों की सम्पत्तियों पर अधिकारियों की मिलभगत से बड़े-बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान खड़े हैं। पुजारी भूखे मर रहे हैं। राजाओं ने मन्दिर माफी की जमीनें बख्शीश की थीं। लोकतंत्र खा गया।

आज देश में जो साम्प्रदायिक तनाव है वह भी सरकारी भेदभाव के कारण है। जो अल्पसंख्यक हैं, उनको 'कोटे' पर निर्भर रहना पड़ता है। मानों वे राष्ट्र की मुख्य धारा का अंग ही नहीं। अब यही परिस्थितियां आरक्षित वर्ग को भी झेलनी पड़ रही हैं। सरकारी नौकरियों में कितने लोगों को जगह मिल सकती है। शेष समुदायों को इसका सामाजिक दंश पहले से अधिक उठाना पड़ता है। जिनको लाभ मिल जाता है वे शेष समाज से स्वत: अलग हो जाते हैं। हमने खा लिया, सबके पेट भर गए।

समान नागरिक संहिता के अभाव में असुरक्षा का भाव बढ़ता ही जा रहा है। अपने ही देश में, लोकतंत्र के चलते असुरक्षा? सरकारों को अपनी नीतियों में समानता और पारदर्शिता की गारण्टी देनी चाहिए। नहीं दे पा रही हैं। हर बार आम चुनावों में ध्रुवीकरण बढ़ता देखा जा रहा है। ममता बनर्जी ने बांग्लादेशियों के नाम पर जो उद्घोष किया था, सम्पूर्ण राष्ट्र चकित था। अन्य प्रान्तों के आम चुनाव भी अब तो ध्रुवीकरण पर ही आधारित होने लगे हैं। इसी कारण अपराधी भी योग्य होते जा रहे हैं। चुनाव आयुक्त, लोकायुक्त, न्यायालय आदि सभी किंकर्तव्यविमूढ़ से जान पड़ रहे हैं। लोकसभा/संसद में आधे तो सांसद अपराधी ही हैं। यह नया सम्प्रदाय बन रहा है।

सरकार की कार्यप्रणाली स्पष्ट होनी चाहिए। देवस्थान जैसा व्यवहार समाज को विषैला बनाता है। मन्दिरों के लिए विभाग, मस्जिदों/तीर्थों में सरकारी कमेटियां, गुरुद्वारों, गिरजाघरों में क्या? जिनको सरकार धर्म मानती है, मान्यता देती है, तब समान व्यवहार क्यों नहीं? सरकारों की नीयत लोकतंत्र के दर्पण में धुंधली हो गई है।

जैसा नेता, वैसा देश

नालायक बेटे