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गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ गए हैं। राजनीतिक दल और तमाम नेता इन नतीजों की व्याख्या अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं। नतीजों का राजनीतिक विश्लेषण भी लम्बे समय तक होता रहेगा। बावजूद इसके एक बात साफ दिखाई दे रही है। वो ये कि २२ सालों से गुजरात पर शासन कर रही भाजपा अपना गढ़ बचाने में कामयाब तो रही लेकिन वहां भरी सर्दी में उसको पसीना जरूर आ गया।
ढाई दशकों में यह पहला मौका है जब डेढ़ सौ का दावा करने वाली भाजपा को यहां सौ का आंकड़ा छूने में भी परेशानी आई। वोट प्रतिशत बढऩे के बावजूद उसे सोलह सीटें गवानी पड़ी। उसके छह मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा। चुनाव नतीजों से कांग्रेस भले अपनी पीठ ठोक ले लेकिन नतीजों में उसके लिए भी सबक छिपा है। सवा सौ सीट जीतने का दावा ठोक रही कांग्रेस २२ सालों की शासन विरोधी हवा को अपने पक्ष में करने में नाकामयाब रही।
नोटबंदी और जीएसटी के विरोध तथा पाटीदार आंदोलन से बनी हवा ने उसकी सीटें तो बढ़ाईं लेकिन सत्ता की दहलीज तक नहीं पहुंच पाई। कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन मोढवाडिया, शक्तिसिंह गोहिल, तुषार चौधरी और सिद्धार्थ पटेल चारों खाने चित्त हो गए। यानी मतदाताओं ने दोनों दलों और उनके नेताओं को आईना दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आईना हार्दिक पटेल , अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी को भी देखना पड़ा। इन नेताओं को जनता ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी।
कहा जा सकता है कि गुजरात के चुनावी नतीजों में सबके लिए कुछ न कुछ संदेश है। इस संदेश को कौन, किस तरीके से पढ़ पाता है, समय बताएगा। हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे अनुमानों के अनुसार ही आए। वहां पिछले तीन दशक से एक बार कांग्रेस तो एक बार भाजपा सत्ता की सवारी करते आए हैं। राज्य की ६८ में से ४४ सीटें जीतने के बावजूद भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रेम कुमार धूमल को शिकस्त खानी पड़ गई।
कांग्रेस के भी अनेक मंत्रियों को पराजय का सामना करना पड़ा। दोनों राज्यों के चुनाव नतीजे आने वाले चुनावों पर असर डालेंगे। चार महीने बाद कर्नाटक और फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत आठ राज्यों के विधानसभा चुनाव राजनीतिक दलों को नई रणनीति अपनाने के लिए भी विवश करेंगे।
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