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शरीर ही ब्रह्माण्ड: कर्म ही मेरा धर्म

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: प्रकृति में हर तत्त्व का अपना धर्म होता है। पानी स्वभाव से नीचे की ओर बहता है। शीतलता पानी का धर्म है। अग्नि वस्तु को तोड़ती है, जलाती है, दाहकता अग्नि का धर्म है। धर्म ही कर्म की पहचान बन जाता है... 'शरीर ही ब्रह्माण्ड' श्रृंखला में 'धर्म ' और 'कर्म' की व्याख्या समझने के लिए पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख -

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Gulab Kothari

Mar 05, 2022

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: दो शब्द हैं-कर्म और धर्म। कर्म क्रिया है, धर्म कारण है। शरीर को मन्दिर कहते हैं, आत्मा पुजारी है। न जाने कितने रूप होते हैं धर्म के। एक व्यक्ति का निजी धर्म होता है, जो जीवन को धारण करता है। व्यक्ति जैसे अपने इष्ट का चुनाव करता है, वैसे ही धर्म का चुनाव कर सकता है। यह धर्म उसके कर्मवीर्य अर्थात् वर्ण (चातुर्वर्ण) से भी मेल खाना चाहिए। धर्म का एक प्राकृतिक स्वरूप है, एक जीव के कर्म का स्वरूप है। हर व्यक्ति प्रकृति से उत्पन्न होता है, जिस प्रकार अन्य जड़-चेतन की सृष्टि होती है। इस सृष्टि का आधार पूर्व जन्म के कर्मफल होते हैं, जिन्हें इस जन्म में भोगना पड़ता है। ये प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों को करने के लिए हमको शरीर-मन-बुद्धि तीन साधन प्राप्त हैं। याद यही रखना चाहिए कि ये तीनों साधन हैं, मैं नहीं हूँ। ये तीनों साधन त्रिगुण से प्रभावित रहते हैं।

अत: इनके कर्म भी उसी परिप्रेक्ष्य में फल देते हैं। कर्म और कर्मफल का सिद्धान्त सातों लोकों में समान रूप से लागू होता है। प्रकृति में हर तत्त्व का अपना धर्म होता है। पानी स्वभाव से नीचे की ओर बहता है। शीतलता पानी का धर्म है। अग्नि वस्तु को तोड़ती है, जलाती है, दाहकता अग्नि का धर्म है। धर्म ही कर्म की पहचान बन जाता है।

शरीर का धर्म है कर्म-क्रिया-कार्य। बुद्धि का धर्म तर्क, मन का धर्म मन्थन है। आत्मा यूं तो प्रत्येक जड़-चेतन में समान है, किन्तु कर्म भोग के प्राकृतिक आधार भिन्न हैं। आत्मा में कर्म का आधार होता है-वीर्य। ये तीन प्रकार की कार्यक्षमता उपलब्ध करवाता है-ब्रह्म, क्षत्र, विङ्। इन्हीं के आधार पर प्रकृति ने ज्ञान, रक्षा और पोषण कर्मों को व्यवस्थित कर रखा है।

ये तीनों वर्ण सभी चौरासी लाख योनियों में जड़-चेतन-देव-असुर-पाषाण आदि सब में होते हैं। जब कोई जीव स्वयं के वर्ण से बाहर जाकर कर्म करता है, तो उसकी सफलता संदिग्ध हो जाती है। चूंकि ये वर्ण आत्मा के हैं, अत: कर्म के साथ शरीर में उपलब्ध रहते हैं। जीव के अन्य कर्म विरोधाभासी होने पर आत्मा कर्म के साथ जुड़ नहीं पाता। पूर्ण मनोयोग से कर्म होगा ही नहीं। जीव/व्यक्ति को हार माननी ही पड़ेगी।

धर्म सामूहिक नहीं हो सकता। यह व्यक्ति/वस्तु की निजी सम्पत्ति की तरह है। दो भाई एक जैसे नहीं हो सकते। सामूहिक अथवा जिसे संस्था बनाया वह तो सम्प्रदाय है, किसी व्यक्ति और विचार का अनुगामी है। रिलीजन को धर्म कहा तो सम्प्रदायों को धर्म मानने लगे। सम्प्रदाय किसी एक गुरु के साथ आगे बढ़ते हैं। क्राइस्ट, महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, नानक आदि उदाहरण हैं।

उनके निर्देशों का पालन करते आगे बढ़ते हैं। इसका धर्म से लेना-देना ही नहीं है। मुझे अपने धर्म के अनुकूल जीना है। धर्म जाति वाचक नहीं है। व्यक्ति का स्वाभाविक धर्म आत्मा के वर्ण का वाचक है। उसी के अनुरूप अन्न, मन के विचार और इच्छाएं पैदा होती हैं। कृष्ण ने वर्ण को भी धर्म का हिस्सा माना-'अर्जुन तू क्षत्रिय है, तेरा धर्म युद्ध करना है।'

धर्म को यदि समझ रहे हैं तो सारी कामनाएं ही विवेकपूर्ण हो जाएंगी। शरीर-मन-बुद्धि तीनों तो त्रिगुण के आवरण में हैं। वर्ण के अनुकूल बुद्धि ही काम करेगी। निस्त्रैगुण्य हो जाओ, प्रज्ञावान हो जाओ तो आपकी बुद्धि इन सीमाओं से ऊपर उठ जाएगी।

सभ्यता बदलती है, जीवन जीने का ढंग बदलता है, आत्मा का स्वरूप नहीं बदलता। सभ्यता समय के साथ बदलती है, संस्कृति नहीं बदलती। अपने वर्णानुकूल कर्म ही हाथ में लेने होंगे। वर्ण धर्म का हिस्सा है, जाति से लेना-देना नहीं है। वर्ण की यह व्यवस्था, आत्मा का जो मत्र्य भाग है, उस पर लागू होगी। ईश्वर-आत्मा के संस्कार नहीं बदलते।

यदि यह समझकर द्वन्द्वमुक्त कर्म कर रहा हूं तो आगे गति अपने आप सुधार जाएगी। वर्ण केवल एक मंच दे रहा है- त्रिगुण से निकलने का। एक कर्म आजीविका से जुड़ा है, जो जातिवाचक (कुम्हार-लुहार-बढ़ई आदि) हो सकता है। आत्मा का धर्म ईश्वर से सम्बन्ध रखता है, क्योंकि आत्मा ईश्वर का ही अंश है। जहां कर्म ही धर्म बन जाए, धर्म ही कर्मरूप में परिलक्षित होने लगे, तब लगता है जीवन की समझ पकने लगी है।

प्रज्ञा जागृत हुई है और जीवन की समग्रता विकसित होने लगी है। व्यक्ति जीवन की सूक्ष्म क्रियाओं को जानने लगा है। सूक्ष्म जगत क्या है? अक्षर सृष्टि, हमारा हृदय केन्द्र। प्राणों को ही हम देवता कहते हैं। वे ही सृष्टि के एकमात्र गतिमान तत्त्व हैं। वे ही क्षर सृष्टि के कारण हैं, हमारे जीवन का नियन्त्रण करते हैं। हमारा पोषण भी देवतत्त्व ही करते हैं। यज्ञक्रिया को धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित किया गया है।

गीता वाक्य है-
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। गीता 3.11
यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।

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इसको कहते हैं धर्म। यदि हम देवताओं का पोषण नहीं करेंगे, तो वे भी हमारा पोषण नहीं करेंगे। जिस तरह जड़ में सींचा गया जल पेड़ के प्रत्येक अंग तक पहुंचना चाहिए, यही स्वरूप हमारे प्राकृतिक जीवन का भी है। मेरा जहां, जिसके साथ जो सम्बन्ध है, उसी के अनुकूल वहां मेरा धर्म भी है। इस दृष्टि से यज्ञ, दान, तप को देखना चाहिए। ईश्वर के लिए तो ब्रह्माण्ड ही पेड़ की तरह है। अब यदि मैं भी ईश्वर का अंश हूं, तो वही पेड़ मेरा ब्रह्माण्ड भी है। नहीं है, तो होना चाहिए।

कृष्ण ने तो अपने अवतार रूप आने का कारण ही धर्म की स्थापना को दिया है। तब धर्म की व्याख्या में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समाहित देखना चाहिए। जिस कर्म से धर्म व्यवस्थित रहे, वही धर्म कहलाता है। ''यदा यदाहि धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत।'' जब जब धर्म पर विपत्ति आएगी- क्या अर्थ है-सृष्टि में एक चौथाई देव तथा तीन चौथाई असुर हैं।

तब कौनसा क्षण ऐसा होगा, जब धर्म पर संकट नहीं आ रहा होगा! तब कौन किसको पुकारेगा! चूंकि यह संकट भी नित्य है, कृष्ण भी नित्य है-ममैवांशो जीवलोके... (गीता 15.7)। प्रत्येक जड़-चेतन उसी का अंश है। यदि मेरे सामने धर्म पर आक्रमण हो रहा है और मुझे अपने होने पर विश्वास है, मेरे भीतर का कृष्ण प्रकट हो जाएगा। यदि मैं आसुरी भाव का हूं तो आक्रामक भी हो सकता हूं। किन्तु मेरे भी हृदय में वही बैठा है (18/61), तो आक्रामक होने से पहले मेरा मन भी एक बार तो ठिठकेगा।

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इसका मन्तव्य इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति को अधर्म से संघर्ष करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अपने कृष्ण स्वरूप का चिन्तन ही आपकी प्रेरणा है। तब प्रत्येक कर्म भी लोकसंग्रह के लिए होने लग जाएगा। यदि वानप्रस्थ काल में भी इसका अभ्यास कर लिया जाए तो संन्यास आश्रम पूर्णरूप से धर्मरक्षार्थ लगाया जा सकता है।

कृष्ण ने धर्म का एक ही उद्देश्य बताया-धर्म की पुनस्र्थापना करनी है। धर्म शाश्वत है, शाश्वत से ही जुड़ता है, आत्मा से ही जुड़ता है। पहले जिसको धारण किया जाता है, वह मेरा धर्म बनता है, फिर वह मुझे धारण करता है। भक्ति भी व्यक्ति स्वयं भगवान को तय करके फिर करता है। पहले व्यक्ति इष्ट को धारण करता है तब वह आपका धर्म बनता है। भक्ति-प्रेम तय करके करना होता है। पहले व्यक्ति धारण करता है, सोच-समझ कर करता है।
क्रमश:

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