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कर्म ही प्रकृति की पहचान

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: 'शरीर ही ब्रह्माण्ड' शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख - कर्म ही प्रकृति की पहचान

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शरीर ही ब्रह्माण्ड : कर्म ही प्रकृति की पहचान

शरीर ही ब्रह्माण्ड : कर्म ही प्रकृति की पहचान

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: हमारे मन, बुद्धि और आत्मा की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से ही होती है। शरीर के कर्म को श्रम कहते हैं, प्राणों के कर्म को चिन्तन व मनन को तप कहते हैं। बुद्धि के कर्म से शिल्प बनता है। मन कलाओं का आश्रय है। मन, जब कर्म से जुड़ता है तब सारा श्रम कला रूप में परिवर्तित हो जाता है। बिना मनोयोग के कला पैदा ही नहीं होती। मन की एकाग्रता कर्म को पूजा अथवा ध्यान का रूप प्रदान कर देती है। कला स्वयं ईश्वर का गुण है। आत्मा को षोडशकल कहा है। अत: कला आत्मा को मन और इन्द्रियों सहित ब्रह्म की ओर मोड़ती जान पड़ती है। कलाकार अपनी कला में सदा लीन ही दिखाई देता है। यही भक्ति का स्वरूप है। मूल में सिद्धान्त यही है कि कर्म ही बांधता है, कर्म ही बांधा जाता है और कर्म की ही कर्मान्तर से ग्रन्थि पड़ती है। कर्म और ग्रन्थि दोनों मरणशील हैं। जैसे वेगवान् वायु जल में (बुद्बुद रूप) पूरी तरह बांध दिया जाता है, फेन रूप भासित होता है, उसी तरह ब्रह्म में कर्म का बन्धन ही विश्व रूप है। बाहर कर्म है, भीतर ब्रह्म है।



अर्थात् जो प्रवृत्ति-निवृत्ति, कर्तव्य-अकर्तव्य, भय-अभय, बंध-मोक्ष को जानती है, वह सात्विकी बुद्धि है। क्रिया करना उचित है, न करना अनुचित है। क्रिया कार्य है, न करना अकार्य है। न करने से भय है, बन्धन है। करने से मोक्ष है, अभय है। सुषुम्ना में सात्विक बुद्धि कार्य करती है।


मनुष्य भी पशु है-आहार-निद्रा-भय-मैथुुन में रमण करने के कारण। तब जन्म-मरण से मुक्त कैसे हो! विषयों से निवृत्ति, इन्द्रिय संयम के बगैर कैसे संभव है। इस प्रकार असंयमित जीवन बिना केवट की नाव है। अत: कर्मों में शास्त्र दृष्टि होनी आवश्यक है-किं करणीयं, किं अकरणीयं- रूप विधि और निषेध का ज्ञान अनिवार्य है। भय पैदा करने वाले चोरी-हिंसा-मिथ्याचार आदि सभी त्याज्य हैं। उपासना, परोपकार, तप करणीय हैं। इस ज्ञान से ही बुद्धि और धारणा दृढ़ होती है।

प्रवृत्ति और निवृत्ति दो विरुद्ध तत्त्वों में प्रवृत्ति का कारण अविद्या (पंच क्लेश) होती है। निवृत्ति विद्या से होती है।
सांसारिक सूक्ष्म क्लेशों का त्याग चित्तलय से ही संभव है। चूंकि धर्म-अधर्म रूप कर्मों के संस्कार ही कर्माशय कहलाते हैं। यही क्लेश का मूल है। यही भय का भी कारण है। इनका देहाभिमान नष्ट नहीं होता। अत: जन्म-मृत्यु का भय होता है। किन्तु अभ्यास से बुद्धि स्थिर हो जाती है-यही सात्विक बुद्धि है।

राजसी बुद्धि से धर्म-अधर्म, कार्य-अकार्य का स्वरूप समझ में नहीं आता। संशय बना रहता है। हमारे भीतर का प्राण ही घट-घटवासी है। सूत्रात्मा रूप से प्राण ही जगत का पालक है। प्राणायाम से श्वास की गति पर नियंत्रण होता है। इसी से अज्ञान के आवरण दूर होते हैं। इसी क्रिया को ही धर्म तथा न करना अधर्म कहा है। आस्था के अभाव में बुद्धि स्थिर नहीं होती। कभी अभ्यास करते हैं, कभी नहीं करते। ऐसी भावना वाली बुद्धि में ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। सांसारिक बुद्धि राजसी है।

विपरीत का ग्रहण करने वाली बुद्धि तामसी है। अन्त:करण ही बुद्धि है, ज्ञान-धृति उसकी वृत्ति है। इच्छा द्वेषादि अन्त:करण की वृत्तियों के प्रभावी होने पर भी धर्म-अधर्म, भय-अभय रूप बुद्धि की प्रधानता के कारण इनकी त्रिविधता कही गई है।

तामसिक व्यक्ति धर्म को अधर्म तथा अधर्म को धर्म मानता है। असत्य-अनित्य ही सत्य-नित्य प्रतीत होता है। श्रेय का स्थान प्रेय ले लेता है। उसके कर्म में अहंकार-अज्ञान प्रधान रहते हैं। भोग-द्रव्यों की प्राप्ति को भाग्य का उदय मानते हैं। आत्म-ज्ञान को जानने की चेष्टा नहीं रहती।

चूंकि यज्ञ-दान-तप भी त्रिगुणी होते हैं, कर्ता के अनुसार कर्म भी तीन प्रकार का हो जाता है। त्याग भी तीन प्रकार का हो जाता है। चूंकि अनुष्ठान का आधार तो श्रद्धा होती है और वह भी तीन प्रकार की होती है। श्रद्धारहित यज्ञ-तप-दान भी असत् कहलाता है। हर क्रिया के सम्पन्न होने से जो अतिशय उत्पन्न होता है, उसकी सत्ता तो बाद में भी रहती है। वही फल देता है इस अतिशय की प्राप्ति श्रद्धा से होती है।

इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के त्रिगुणी होने का प्रभाव उसके चिन्तन और कर्म के स्वरूप पर पड़ता है। त्रिगुण के रहते फल का सत् रूप संभव नहीं हो पाता है। इसके लिए सात्विक श्रद्धा से भी आगे-'निस्त्रैगुण्यÓ भाव में प्रवेश करना अनिवार्यता है।

कर्म का कारक इच्छा है, जो उत्पन्न तो मन में होती है, किन्तु इसका जनक मन नहीं होता। एक ओर व्यक्ति की अहंकृति और आकृति से प्रकृति जुड़ी है, जो प्रकृति प्रारब्ध के अनुसार इच्छा उत्पन्न करती है। इसमें व्यक्ति का मात्र भोक्ता भाव रहता है। यह अलग बात है कि व्यक्ति प्रतिक्रियावश पुन: नया कर्म इस प्रक्रिया से जोड़ देता है।

इच्छा का दूसरा स्वरूप जीव की इच्छा है। काम्य कर्म भी इसी श्रेणी में आते हैं। यह प्रक्रिया मूलत: तो व्यक्ति के कर्ता भाव पर आधारित होती है। व्यक्ति के कर्ता रूप त्रैगुण्य व्यवहार (कर्म) तथा कर्म की भी त्रिगुणात्मक निष्पत्ति फल का निर्धारण करती है। अत: प्रकृति सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार हो जाता है। प्रकृति ही मन की चंचलता का कारण है और जाग्रत होकर नित्य अभ्यास ही स्थिरता का मार्ग है।

कर्म और गुण से महत्वपूर्ण भाव है। परिणाम मात्र कर्म पर आधारित नहीं है- इसमें सृष्टि या मुक्ति का साक्षी भाव प्राथमिकता है। मन के भाव ही प्राणों की गति और दिशा तय करते हैं। इच्छा जब सृष्टि साक्षी होती है तब ही प्रकृति गतिमान होती है। मुक्तिसाक्षी भाव में प्रकृति सुप्त रहती है। वह गुणातीत अवस्था है। व्यक्ति का मन अस्थिर होने पर सत्व-रज-तम का प्रभाव दिखाई पड़ता है। व्यक्ति के धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म का भेद छूट जाता है। यही स्वभाव व्यक्ति का परिचायक बन जाता है।

क्रमश:

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