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बचत की बजाय खर्च को मिल रहे प्रोत्साहन से बढ़ेगी मुश्किल

कभी हमारे यहां बचत दर 30 से 32 प्रतिशत हुआ करती थी। जाहिर है, तब बचत पर कई तरह के प्रोत्साहन थे। भारतीयों की बचत की प्रवृत्ति वर्ष 2008 से 2010 के बीच वैश्विक आर्थिक मंदी में हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा संबल साबित हुई थी।

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Patrika Desk

Feb 07, 2023

बचत की बजाय खर्च को मिल रहे प्रोत्साहन से बढ़ेगी मुश्किल

बचत की बजाय खर्च को मिल रहे प्रोत्साहन से बढ़ेगी मुश्किल

राजकुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार

वित्त मंत्रालय में हलवा-समारोह हुआ तो लगा कि नरेंद्र मोदी सरकार के अंतिम पूर्ण बजट में आम आदमी के हिस्से भी कुछ मिठास आएगी, पर वेतनभोगियों को मामूली आयकर राहत तथा चंद आकर्षक दीर्घकालीन योजनाओं से ज्यादा कुछ मिला नहीं। वैसे सुपर रिच टैक्स को 42.74 से घटा कर 39 प्रतिशत करने में सरकार ने ज्यादा उदारता दिखाई है। दो लाख रुपए पर दो साल तक साढ़े सात प्रतिशत ब्याज वाले महिला सम्मान पत्र तथा वरिष्ठ नागरिकों की बचत सीमा दो गुना करने के अलावा बचत को प्रोत्साहित करने के प्रयास बजट में भी नदारद हैं। क्या सरकार लोगों को ज्यादा से ज्यादा खर्च करने को प्रोत्साहित कर रही है, ताकि अर्थव्यवस्था को गति मिल पाए? अर्थव्यवस्था और उसके लिए बाजार की चिंता में कोई बुराई नहीं है, पर व्यापक जनहित की कीमत पर वैसा करना उचित नहीं। भले ही हम विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हों, पर हमारे यहां सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था के अभाव में खासकर वेतनभोगियों के पास सम्मानजनक बुढ़ापा जीने के लिए सेवाकाल में बचत के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इसलिए भी लंबे समय तक हमारे यहां बचत पर आयकर में छूट समेत कई तरह के प्रोत्साहन दिए जाते रहे, पर आर्थिक उदारीकरण के बाद से नागरिकों को बचत की बजाय खर्च के लिए ही प्रोत्साहित किया जा रहा है। दूसरी ओर महंगाई नियंत्रण के नाम पर बढ़ती ब्याज दरें ईएमआइ का बोझ बढ़ा रही हैं।
कभी हमारे यहां बचत दर 30 से 32 प्रतिशत हुआ करती थी। जाहिर है, तब बचत पर कई तरह के प्रोत्साहन थे। भारतीयों की बचत की प्रवृत्ति वर्ष 2008 से 2010 के बीच वैश्विक आर्थिक मंदी में हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा संबल साबित हुई थी। तब अमरीका जैसी महाशक्ति की आर्थिकी भी डगमगा गई थी, लेकिन भारत लगभग अप्रभावित रहा था। बाजार और अर्थव्यवस्था अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है, लेकिन निजी संकटकाल में वे व्यक्ति के मददगार साबित नहीं होते। कोविड काल और उसके बाद भी जिस तरह सरकारी क्षेत्र में रोजगार घट रहे हैं और निजी क्षेत्र में छंटनी जारी है, उसके मद्देनजर सरकार से बचत को प्रोत्साहित करने वाले कदम अपेक्षित ही थे। बेशक 47 लाख युवाओं को तीन साल प्रशिक्षण और भत्ता देने की योजना बजट में है, पर कब और कैसे? रोजगार निर्माण के लिए 10 लाख करोड़ के निवेश की बात भी है, पर किसी समय सीमा और स्पष्ट योजना का उल्लेख नहीं है। ऐसा नहीं है कि बजट दिशाहीन है। बजट परंपरागत रूप से दीर्घकालीन सुधारों और ढांचागत विकास पर केंद्रित है। यह बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाता है, लेकिन असल संकट तो तात्कालिक है, वर्तमान का है, जो समाधान के लिए अनंतकाल तक इंतजार नहीं कर सकता।
इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता कि आम आदमी की आय घटी है और बेलगाम महंगाई के चलते खर्चे बढ़े हैं। मध्यम और छोटे उद्योग कोविड के कहर से अभी तक नहीं उबर पाए हैं, तो शहरों के साथ ही ग्रामीण क्षेत्र में भी ऊंची बेरोजगारी समस्या बनी हुई है। कृषि क्षेत्र इस संकट के समाधान में मददगार हो सकता है, पर वह तो खुद अपूर्व संकट का शिकार है। इस बजट में भी कृषि उत्पादन में तकनीक के उपयोग तथा प्राकृतिक खेती और फसल विविधीकरण को प्रोत्साहन की आकर्षक दीर्घकालीन योजनाएं तो हैं, पर आर्थिक -व्यवहार्यता के संकट से गुजर रही कृषि और जीवनयापन के संकट से रूबरू किसान को तत्काल राहत की कोई राह दिखाई नहीं पड़ती। लगभग 80 करोड़ आबादी को कोविड काल में हर महीने पांच किलो खाद्यान्न न्यूनतम मूल्य पर देने की योजना का सफल क्रियान्वयन और अब उसे मुफ्त करते हुए दिसंबर, 2023 तक बढ़ाना सरकार की जनहितैषी संवेदनशील सोच का प्रमाण है। लेकिन, गरीबी की रेखा से नीचे के इस भयावह आंकड़े से उठने वाले सवालों का जवाब और स्थायी समाधान भी तो चाहिए, जिसका कोई संकेत केंद्रीय बजट नहीं दे पाया।