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भारतीय मुद्रा के चिह्न में बदलाव: भाषा विवाद या राजनीतिक खेल?

हाल में तमिलनाडु सरकार ने राज्य के अपने बजट 'लोगो' में आधिकारिक भारतीय रुपये के चिह्न की जगह तमिल अक्षर का इस्तेमाल किया है। यह पहली बार हुआ है, जब किसी राज्य ने भारतीय मुद्रा रुपए के चिह्न में यह बदलाव किया है।

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जयपुर

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Neeru Yadav

Mar 16, 2025

सुनील कुमार महला

क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग विषय पर विवाद के बीच अब तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने भारतीय रुपए के चिह्न में बदलाव करते हुए इसे भी राजनीतिक विवाद का विषय बना दिया है, वास्तव में यह बहुत ही दुखद है। कहना ग़लत नहीं होगा कि राष्ट्रीय प्रतीक को बदलना अव्यावहारिक है। सच तो यह है कि यह कदम अनावश्यक और विभाजनकारी ही कहा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस कदम को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पर निशाना साधा है।पाठकों को बताता चलूं कि हाल में तमिलनाडु सरकार ने राज्य के अपने बजट 'लोगो' में आधिकारिक भारतीय रुपये के चिह्न की जगह तमिल अक्षर का इस्तेमाल किया है। यह पहली बार हुआ है, जब किसी राज्य ने भारतीय मुद्रा रुपए के चिह्न में यह बदलाव किया है। वास्तव में,इससे पहले किसी भी राज्य की तरफ से इस तरह का कोई भी कदम नहीं उठाया गया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि तमिलनाडु सीएम एमके स्टालिन के इस कदम को लेकर अब अनेक तरह के सवाल भी उठने लगे हैं। क्या यह दुखद नहीं है कि आज आधिकारिक कम्युनिकेशन(संचार) और डाक्यूमेंटेशन (दस्तावेजीकरण) में क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग एक विवाद का विषय बन गया है। भाषा को लेकर राजनीति की जानी, किसी भी लिहाज से ठीक नहीं कही जा सकती है। आखिर इससे बड़ी बात भला और क्या हो सकती है कि आज डीएमके स्थानीय भाषाओं पर हिंदी थोपने का आह्वान कर रहा है ? अब सवाल यह उठता है कि क्या तमिलनाडु सीएम ने भारतीय मुद्रा के प्रतीक चिह्न को लेकर जो कदम उठाए हैं, वे ठीक और जायज हैं अथवा क्या राज्य के पास(तमिलनाडु के पास) इस तरह रुपए के चिह्न में बदलाव करने का कोई अधिकार है ? सवाल है कि क्या देश भर में पिछले कई सालों से मान्य इस रुपए के चिह्न को राज्य सरकार बदल सकती है? हालांकि, यहां पाठकों को बताता चलूं कि केंद्र की तरफ से रुपये के चिह्न में बदलाव को लेकर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में साफतौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि तमिलनाडु सरकार की तरफ से यह कदम कानून का उल्लंघन है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार राष्ट्रीय चिह्न की सूची में रुपए का चिह्न नहीं है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय चिह्न में बदलाव के संबंध में भारतीय राष्ट्रीय चिह्न (दुरुपयोग की रोकथाम) एक्ट 2005 का निर्माण किया गया है। पाठकों को यहां बताता चलूं कि इस कानून को वर्ष 2007 में अपडेट या अद्यतन भी किया जा चुका है। एक्ट के सेक्शन 6(2)(एफ) में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि सरकार राष्ट्रीय प्रतीकों की डिजाइन में बदलाव कर सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो आवश्यकता समझे जाने की स्थिति में केंद्र सरकार के पास राष्ट्रीय चिह्न में कोई भी बदलाव किए जाने की शक्तियां निहित हैं। एक्ट के तहत सिर्फ राष्ट्रीय चिह्न के डिजाइन में ही बदलाव किया जा सकता है, लेकिन इसका पूरा डिजाइन नहीं बदला जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार केंद्र सरकार यदि चाहें तो वह पूरा का पूरा राष्ट्रीय प्रतीक भी बदल सकती है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारतीय राष्ट्रीय चिह्न (दुरुपयोग की रोकथाम) एक्ट 2005 में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है, जो सरकार को ऐसे बदलाव करने से रोकता है। इस स्थिति में संबंधित कानून में संशोधन के बाद दोनों सदनों से पारित करवाकर पूरे राष्ट्रीय प्रतीक को भी बदला जा सकता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 आधिकारिक भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है और तमिल उनमें से एक है। भारतीय मुद्रा रूपए में केवल एक प्रतीक है, जो देवनागरी अक्षर 'र' है और रोमन अक्षर की बात करें, तो वह 'आर' है। वास्तव में, भारतीय मुद्रा रुपए का यह प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के अक्षर 'आर' को मिलाकर बनाया गया है और इसमें एक क्षैतिज रेखा बनाकर इसे स्वीकार किया गया है।यह क्षैतिज रेखा(होरीजेंटल लाइन) हमारे 'राष्ट्रध्वज' तथा 'बराबर' के चिह्न को प्रतिबिंबित करती है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने 15 जुलाई 2010 को इस चिह्न को स्वीकार किया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस चिह्न को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी-बी), बॉम्बे के पोस्ट ग्रेजुएट डिजाइन डी. उदय कुमार ने बनाया था तथा डी.उदय कुमार तमिलनाडु में डीएमके के पूर्व विधायक के बेटे हैं। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि तमिलनाडु सरकार की ओर से रुपए के सिंबल पर जारी विवाद पर को डिजाइन करने वाले शख्स उदय कुमार धर्मलिंगम का बयान भी सामने आया है। उन्होंने कहा है कि- 'मुझे इस सिंबल चेंज के पीछे के कारणों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, संभवतः राज्य सरकार के पास परिवर्तन करने के अपने तरीके, विचार और कारण हैं। मैंने इसे 15 साल पहले डिज़ाइन किया था जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने एक प्रतियोगिता आयोजित की थी और मैंने इसे जीता था, जिसके बाद उन्होंने इसे लागू किया और इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है।' उन्होंने इस पर आगे यह भी कहा कि- 'मैं रुपए के प्रतीक चिह्न का डिजाइनर होने के कारण वास्तव में खुश हूं, लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी इस तरह की बहस होगी। इसने बस किसी तरह ऐसा मोड़ ले लिया और अब प्रतीक चिह्न को लेकर बहुत सारी चिंताएं चल रही हैं।' यहां यह भी गौरतलब है कि तमिलनाडु राज्य योजना आयोग के कार्यकारी उपाध्यक्ष डॉ. जे. जयरंजन ने भी तमिलनाडु सरकार द्वारा वर्ष 2025-26 के तमिलनाडु बजट में रुपए के प्रतीक चिह्न को तमिल भाषा में बदलने पर यह बात कही है कि-'हम देवनागरी का उपयोग नहीं करना चाहते। बस इतना ही।' बहरहाल, यह बहुत ही दुखद है कि अब इस सिंबल पर भाषाई राजनीति के बजाय भाषाई घृणा हो रही है। इससे बड़ी बात और भला क्या हो सकती है कि अब भाषा विवाद को बढ़ाते हुए डीएमके सरकार ने राज्य के बजट से इस सिंबल को गायब कर दिया है। इस सिंबल यानी कि चिह्न के स्थान पर अब तमिल अक्षर का इस्तेमाल किया गया है। हालांकि, यह भी एक तथ्य है कि दोनों सिंबलों का अर्थ एक ही है, लेकिन ये एक 'तमिल' शब्द है। कहना ग़लत नहीं होगा कि ये सारा का सारा मामला कहीं न कहीं भाषा विवाद से ही जुड़ा हुआ है। डीएमके यह आरोप लगा रही है कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत राज्य पर हिंदी थोपने की कोशिश कर रही है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि केंद्र ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि एनईपी(राष्ट्रीय शिक्षा नीति) हमेशा भाषाई विविधता का सम्मान करती है और किसी भी राज्य पर वह कोई भी भाषा लादने का इरादा नहीं रखती है। यह विडंबना ही कही जा सकती है कि आज इस मुद्दे को लगातार सियासी रंग दिए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। वास्तव में, डीएमके और अन्य राजनीतिक दलों को, जो भारतीय मुद्रा रूपए के सिंबल को लेकर सियासत सियासत का खेल, खेल रहे हैं, उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि भाषा-विवाद को आगे बढ़ाकर कोई भी राजनीतिक दल कभी भी अपना जनाधार मजबूत नहीं कर सकता है। यदि कोई भी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक फायदे के लिए भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर आक्रामक रणनीति अपनाता है तो उसे किसी भी हाल और परिस्थितियों में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। भाषा को कभी भी विवाद का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020(एनईपी-2020) में बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिये ‘त्रि-भाषा सूत्र’ पर बल देने का निर्णय लिया गया है तथा 'त्रि-भाषा सूत्र’ तीन भाषाएं हिंदी, अंग्रेजी और संबंधित राज्यों की क्षेत्रीय भाषा से संबंधित है। वास्तव में 'त्रि-भाषा सूत्र' में पहली भाषा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा रखी गई है। वहीं पर यदि हम दूसरी भाषा की बात करें तो हिंदी भाषी राज्यों में यह अन्य आधुनिक भारतीय भाषा या अंग्रेज़ी होगी तथा गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह हिंदी या अंग्रेज़ी होगी। बहरहाल, यहां यदि हम तीसरी भाषा की बात करें तो यह हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेज़ी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी। गैर-हिंदी भाषी राज्य में यह अंग्रेज़ी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी। वास्तव में,राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के अनुसार भाषा सीखना बच्चे के संज्ञानात्मक विकास(कोगनेटिव डेवलपमेंट) का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसका प्राथमिक उद्देश्य(प्राइमरी ऑब्जेक्टिव) बहुउद्देश्यीयता(मल्टीलिंग्वलिज्म) और राष्ट्रीय सद्भाव (नेशनल हार्मनी) को बढ़ावा देना है।सच तो यह है कि त्रि-भाषा सूत्र का उद्देश्य हिंदी व गैर-हिंदी भाषी राज्यों में भाषा के अंतर को समाप्त करना है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि यदि देश का कोई भी राजनीतिक दल या उसका नेता विशेष भाषा जैसे भावनात्मक मुद्दों को भुनाकर यदि अपने वोट बैंक को और सुदृढ़ करना चाहते हैं तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल ही कहीं जा सकती है। अंत में, यही कहूंगा कि यह ठीक है कि भारत दुनिया में सबसे अधिक भाषाई रूप से विविध आबादी वाला देश है तथा भारतीय राजनीतिक पहचान के लिए भाषा बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व होती है, लेकिन भाषा की राजनीति करके, भाषाई मतभेद उत्पन्न कर उसका राजनीतिक लाभ उठाना ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह भाषा ही होती है जो किसी भी देश की राष्ट्रीय एकता और स्वायत्तता दोनों को ही प्रभावित करती है। अतः हमें यह चाहिए कि भाषा के नाम पर राजनीति नहीं करें और अपने स्वार्थों को त्यागते हुए देश के उन्नयन और प्रगति, विकास के लिए सामूहिकता से देश हित में काम करें।