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कॅरियर की दौड़ में पीछे छूटता बचपन

बचपन दांव पर लगाने के बावजूद जब छात्रों को मन मुताबिक कॉलेज में दाखिला नहीं मिलता तो मायूसी उन्हें चारों ओर से घेर लेती है।

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Sunil Sharma

May 28, 2018

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Kid Making Way

- अर्चना डालमिया, टिप्पणीकार

अब साल का वही वक्त फिर से आ गया है जब लाखों स्कूली छात्र एक परीक्षा देंगे और उसी पर उनका भविष्य निर्भर करेगा। कुछ बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आ चुके हैं और कुछ के आने वाले हैं। बोर्ड परीक्षा के अंकों का अत्यधिक महत्व है और आजकल तो एक तयशुदा मानक से कम अंक आना फेल होने के बराबर ही माना जाता है। इसके बाद इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज से लेकर नामचीन यूनिवर्सिटी या कॉलेज में दाखिले के लिए छात्र और उनके परिवार को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। बचपन दांव पर लगाने के बावजूद जब छात्रों को मनमुताबिक कॉलेज में दाखिला नहीं मिलता तो मायूसी अक्सर उन्हें चारों ओर से घेर लेती है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी और ऐसे ही अन्य प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में प्रवेश के लिए कट ऑफ प्रतिशत ही इतना अधिक होता है कि बहुत से छात्र इससे वंचित रह जाते हैं। पहले तो प्रवेश के लिए दबाव और फिर हताशा के चलते छात्रों का मनोबल गिर जाता है। हमारा शिक्षा तंत्र काफी सीमित है, इसलिए अक्सर उन विद्यार्थियों को किसी और विषय में आगे बढऩे का अवसर नहीं मिल पाता जो पारंपरिक पढ़ाई में कुशाग्र बुद्धि नहीं हैं। अभिभावकों को भी समझना होगा कि केवल मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई से ही कॅरियर नहीं बनता। इनके अलावा भी विषय और विभाग हैं, जिन्हें छात्र अपना सकते हैं।

वाराणसी, ग्वालियर और देश के कई दूसरे शहरों में विद्यार्थी सुबह जल्दी ही स्कूल जाने के लिए घर से निकलते हैं और फिर वहीं से विभिन्न कोचिंग संस्थानों का रुख करते हैं। इस तरह वे रात को ही घर पहुंचते हैं। इतने घंटे पढऩे के बाद उन्हें कितना याद रहता है, यह विचारणीय है। छात्र जब कक्षा नौ में होते हैं, तभी से वे कोचिंग कक्षाओं में जाना शुरू कर देते हैं, प्रवेश परीक्षाओं से चार साल पहले। व्यवसायीकरण का स्तर यह है कि इन कोचिंग संस्थानों की संचालक कंपनियां स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हैं। सफल न हो पाने के डर से उपजी हताशा की कितनी ही कहानियां कोटा से निकल कर देश के कोने-कोने तक पहुंच चुकी हैं।

इन हालात से सर्वाधिक प्रभावित मध्यम वर्ग है। उच्च वर्ग के छात्रों पर अधिकांशत: यह दबाव नहीं रहता क्योंकि अभिभावक उन्हें विदेश भेजने में सक्षम होते हैं। समाज के जिम्मेदार नागरिकों और शिक्षाविदों का कर्तव्य है कि वे देश के नौनिहालों का बचपन फिर से लौटाएं ताकि वे भविष्य के खुशहाल कर्णधार बन सकें।