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एक-दूसरे के नजरिये को जानने और समझने का नाम है अनेकांत

- अनिल कुमार जैन (जैन धर्म के अध्येता)

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जयपुर

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VIKAS MATHUR

Apr 10, 2025

भगवान महावीर के समय में चिंतन की एकीकृत धारा कई भागों में विभाजित थी। उस समय वैदिक एवं श्रमण परम्परा के अनेक विचारक विद्यमान थे और ये सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य को पूर्णत: जानने का दावा कर रहे थे। हर कथन में इस बात पर जोर दिया गया कि 'केवल वह ही सत्य जानता है, कोई और नहीं।' भगवान महावीर को आश्चर्य हुआ कि सत्य के इतने सारे दावेदार कैसे हो सकते हैं? सत्य का स्वरूप एक होना चाहिए।

ऐसे में उन्होंने अपने अभ्यास और अनुभव के आधार पर कहा कि सत्य उतना नहीं है जितना मैं देख रहा हूं या जान रहा हूं। यह वस्तु के एक गुण का ज्ञान है। वस्तु अनंत धर्मात्मक/ गुणात्मक है लेकिन व्यवहार में एक समय में उसका एक ही रूप हमारे सामने रहता है। बाकी विशेषताएं अनकही या छिपी रहती हैं। अत: वस्तु का प्रत्येक कथन सापेक्ष हो सकता है। इसी सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए भगवान महावीर ने अनेकांत का सिद्धांत दिया। अनेकांत एक ऐसा सिद्धांत है जो विभिन्न दर्शनों को आपसी टकराव से बचाता है। वस्तु (रियलिटी) को समझना जटिल है क्योंकि वह अनेक धर्मात्मक है।

एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक (गुण) धर्मों की प्रतीति को अनेकांत कहते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भाई, पति आदि अनेक रूपों में दिखाई देता है। एक ही व्यक्ति पुत्र की अपेक्षा पिता है, पिता की अपेक्षा पुत्र है, पत्नी की अपेक्षा पति है, बहन की अपेक्षा भाई है। लेकिन जब पुत्र उसको पिता कहकर संबोधित कर रहा है तब भी वह किसी अन्य के लिए पुत्र, पति और भाई भी तो है ही। जब एक कथन किया जाता है तो दूसरा गौण हो जाता है, यही अनेकांत है। अनेक धर्मात्मक वस्तु के प्रत्येक धर्म को सापेक्ष रूप से कथन करने की शैली का नाम स्याद्वाद है। कुछ लोग भ्रमवश स्याद्वाद को संशयवाद समझ लेते हैं, लेकिन यह गलत हैं। स्याद्वाद में दो शब्द हैं- स्यात् और वाद। स्यात् का अर्थ है सापेक्ष या कथंचित् ; वाद का अर्थ है कथन। अनंत धर्मात्मक होने के कारण वस्तु अत्यंत जटिल है। उसे जाना जा सकता है, परंतु आसानी से कहा नहीं जा सकता है। उसके सभी धर्मों को एक साथ व्यक्त नहीं किया जा सकता है, यह वचन की सीमा है। उसे कहने के लिए वस्तु का विश्लेषण करके एक-एक धर्म को क्रमश: निरूपित करना होता है।

जब कोई किसी व्यक्ति को पिता कहता है तो उसके अन्य रूप तो रहते हैं ही, लेकिन उस समय वे गौण हो जाते हैं। पुत्र की दृष्टि से वह पिता ही है, लेकिन अन्य दृष्टियों से वह पिता नहीं है। अनेकांत और स्याद्वाद के संबंध में हाथी का उदाहरण दिया जाता है। नेत्रहीन व्यक्ति हाथी के जिस हिस्से को स्पर्श करते हैं, वे उसी तरह की वस्तु की कल्पना करने लगते है। वे हाथी को पूर्ण रूप से जान नहीं पाते। हर व्यक्ति एक अंश में, किसी एक अपेक्षा से ही सही है, लेकिन पूर्णत: सही नहीं है। पूर्ण सत्य तब ही प्रकट होगा जब सभी की बातों को जोड़ कर समझें, तभी पूरे हाथी का सही ज्ञान प्राप्त हो सकता है। यदि हम सामान्य भाषा में कहें तो दूसरों के विचारों को उनकी दृष्टि से जानने, समझने और स्वीकार करने का नाम अनेकांत है।