
मानव समाज के विकास का मूल आधार परस्पर सहयोग, विश्वास और मैत्री में निहित है। जब व्यक्ति अपने भीतर द्वेष, क्रोध और हिंसा का पोषण करता है, तब न तो उसका आत्मिक विकास संभव है और न ही समाज की शांति और प्रगति। भारतीय संस्कृति में अहिंसा और करुणा को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त है। इसी परंपरा में जैन धर्म में 'मैत्री' को साधना और जीवन का केंद्रीय सूत्र माना गया है। जैन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित 'मैत्री भाव' मात्र सामाजिक संबंधों का विस्तार नहीं है, बल्कि आत्मिक शुद्धि और वैश्विक बंधुत्व का मार्ग है। इसी भाव को केंद्र में रखकर प्रतिवर्ष जैन मैत्री पर्व मनाया जाता है।
जैन धर्म में आत्मोन्नति के लिए पर्युषण पर्व की आराधना की जाती है। इस पर्व के अंतिम दिन मैत्री पर्व मनाया जाता है। इसी को क्षमा पर्व भी कहते हैं क्योंकि इस दिन व्यक्ति किसी भी प्राणी के प्रति वर्षभर में की गई अविनय, असातना के लिए क्षमा मांगता है। इसे संक्षेप में क्षमा लेने और देने का भी पर्व कहा जा सकता है। भगवान महावीर की वाणी में- ‘खामेमि सव्वे जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे’ अर्थात् मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं और सभी जीव मुझे क्षमा करें। जैन धर्म में अहिंसा, करुणा और समभाव की साधना को सर्वोच्च धर्म कहा गया है। मैत्री पर्व उसी साधना का उत्सव है। यह पर्व किसी बाहरी आडम्बर, रीति-रिवाज या भौतिक प्रदर्शन पर आधारित नहीं है, बल्कि यह आंतरिक भाव-परिवर्तन का पर्व है। इसमें व्यक्ति अपने हृदय में यह संकल्प करता है कि वह सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखेगा, किसी के प्रति शत्रुता नहीं रखेगा और द्वेष-भाव को त्यागेगा।
आचार्य महाप्रज्ञ ने मैत्री पर्व के महत्त्व पर बल देते हुए कहा था कि मैत्री केवल संबंधों का विस्तार नहीं, बल्कि अहिंसा का प्राण है। इसी दृष्टि से यह पर्व आत्मकल्याण के साथ-साथ समाज-कल्याण का भी माध्यम बनता है। जैन दर्शन में ‘मित्ती मे सव्व भूएसु’ अर्थात् सभी जीव मेरे मित्र हैं का सिद्धांत विशेष महत्त्व रखता है। यह दृष्टि संकीर्णता को समाप्त कर व्यापक करुणा की भूमि तैयार करती है। जैन आगमों में यह बताया गया है कि जब मनुष्य मैत्री की साधना करता है, तब उसका चित्त शांत होता है और वह समता की स्थिति में प्रतिष्ठित होता है।
मैत्री भाव के साथ जुड़ा हुआ एक और सूत्र है- ‘मैत्री सर्व जीवेषु, प्रमोद: गुणिषु, करुणा दुखितेषु, माध्यस्थ्यम् अप्रतिष्ठेषु।’ इस सूत्र में कहा गया है कि सभी जीवों के प्रति मैत्री, गुणी व्यक्तियों के प्रति प्रोत्साहन, दुखी के प्रति करुणा और दोषी के प्रति उदासीनता का भाव रखना चाहिए। यह सूत्र मानवता के संतुलित और शांतिपूर्ण जीवन का आधार है। मैत्री पर्व इसी दार्शनिक आधार पर खड़ा है। मैत्री पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मैत्री आत्मिक शांति का साधन है। द्वेष और शत्रुता व्यक्ति के मन को अशांत करते हैं। जब हम दूसरों के प्रति मैत्री भाव रखते हैं, तो मन हल्का होता है और आत्मिक संतोष प्राप्त होता है। समाज में सौहार्द का निर्माण होता है। मैत्री पर्व यह संदेश देता है कि समाज में कोई भी व्यक्ति शत्रु नहीं, बल्कि सहयात्री है।
जब हम सभी प्राणियों को मित्र मानते हैं, तब हम केवल मनुष्यों से नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों, वृक्ष-पौधों और समस्त प्रकृति के साथ मैत्री का भाव रखते हैं। इससे पर्यावरण-संरक्षण की प्रेरणा मिलती है। जैन आचार्यों ने समय-समय पर मैत्री पर्व की महत्ता स्पष्ट की है। आचार्य तुलसी ने कहा था कि मैत्री पर्व मानवता की समरसता का पर्व है। यदि द्वेष मिटाना है, तो मैत्री को जीवन में उतारना होगा। आचार्य महाश्रमण का कथन है कि मैत्री पर्व कोई एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि जीवन जीने की पद्धति है। जब तक यह भाव स्थायी नहीं होता, तब तक शांति का सपना अधूरा है। इन आचार्यों के विचार इस बात की पुष्टि करते हैं कि मैत्री पर्व किसी औपचारिक परंपरा का हिस्सा नहीं, बल्कि व्यवहार और चिंतन की दिशा है। आज का युग भौतिक प्रगति और तकनीकी विकास का युग है, परंतु इसके साथ ही मानवीय संबंधों में तनाव, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास भी बढ़ा है। राजनीतिक स्तर पर राष्ट्र एक-दूसरे से युद्ध की स्थिति में हैं। सामाजिक स्तर पर जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर भेदभाव और हिंसा फैली हुई है। व्यक्तिगत स्तर पर परिवार और समाज में टूटता, ईर्ष्या और अविश्वास गहराते जा रहे हैं। ऐसे समय में मैत्री पर्व एक नई राह दिखाता है। यदि हम इस पर्व के वास्तविक संदेश को आत्मसात कर लें, तो व्यक्तिगत जीवन में शांति, पारिवारिक जीवन में प्रेम और सामाजिक जीवन में सौहार्द स्थापित हो सकता है। मैत्री पर्व का वास्तविक सार यही है कि व्यक्ति अपने भीतर झांके और देखे कि वह किसके प्रति द्वेष रखता है। फिर संकल्प करे कि वह उस द्वेष को मिटाकर मैत्री का भाव विकसित करेगा। यह आत्म-परिवर्तन का मार्ग है। जब व्यक्ति का मन बदलता है, तो समाज बदलता है और जब समाज बदलता है, तो राष्ट्र और विश्व बदलते हैं।
मैत्री पर्व केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि मानवता के कल्याण का महामंत्र है। हमें इस पर्व को मात्र औपचारिक उत्सव न मानकर जीवन का अंग बनाना चाहिए। तभी हम सच्चे अर्थों में जैन धर्म की उस शिक्षा को जी पाएंगे जिसमें कहा गया है- ‘सभी जीव मेरे मित्र हैं।’
Published on:
28 Aug 2025 02:24 pm
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