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पत्रिका ओपिनियन: यांत्रिकता से मुक्त कर चिन्तनशील और विवेकवान बनाने में सक्षम है रंगमंच

हम जिस समय में हैं और जिन संकटों से गुजर रहे हैं, उनमें तकनीक के दुष्प्रभाव से पैदा हुआ संकट अधिक भयावह रूप लेता जा रहा है। हमारे समाज का बड़ा हिस्सा इसकी गिरफ्त में है और समय रहते इसका समाधान नहीं खोजा गया तो स्थिति विकट हो जाएगी। भर्तृहरि ने कहा था- 'साहित्यसंगीत कलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:'। अर्थात साहित्य, कला और संगीत से हीन मनुष्य उस पशु के समान है जिसकी पूंछ और सींग नहीं होते।

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जयपुर

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VIKAS MATHUR

Mar 12, 2024

पत्रिका ओपिनियन: यांत्रिकता से मुक्त कर चिन्तनशील और विवेकवान बनाने में सक्षम है रंगमंच

पत्रिका ओपिनियन: यांत्रिकता से मुक्त कर चिन्तनशील और विवेकवान बनाने में सक्षम है रंगमंच

मुश्किल यह है कि वर्तमान परिदृश्य में यह सार्वजनिक सच हो गया है और तथाकथित पढ़ा लिखा समाज भी इसी दशा को प्राप्त हो गया है। तकनीक के इस भयावह दुष्प्रभाव का समाधान सर्जनात्मक कलाओं से होकर गुजरता है जिन्हें हमने उपेक्षित कर रखा है। साहित्य हो या संगीत, नृत्य हो या नाटक-रंगमंच, चित्रकला हो या समेकित रूप से सांस्कृतिक उद्यम; इनसे मनुष्य अपने जीवन में संवेदनशील होना सीखता है और निरन्तर वैचारिक उन्मेष की संभावना उसमें बनी रहती है। आज की स्थिति में ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसका असल कारण यह है कि हमारे जीवन में कलाओं की जगह नहीं रह गई है। हम सृजन और विचार के मूल्य नहीं समझ पा रहे। यह स्थिति अचानक आ गई हो, ऐसा भी नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के इस कथन को एक सूत्र के रूप में समझना होगा कि- 'नाटक जीवन की महौषधि है।' यानी मनुष्य जीवन की हर व्याधि का उपचार नाटक से होता है, वह महा औषधि है। इसी तरह रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 'नाटक को कल्पनाशीलता और नए वैचारिक सूत्रों को जन्म देनेवाला' माना है।' यह मानसिक विकारों को ठीक करने वाला है।

प्रश्न यह है कि जब समाज में नाटक की कोई भूमिका ही न होगी तो मनुष्य कैसे इन्हें अपने मानसिक विक्षेप का समाधान बना पाएगा? भारत में प्राय: अनेक भाषाओं में नाटक-रंगमंच का एक भरापूरा संसार है। वह उन भाषाओं के लोगों के संस्कार में शामिल है और जीवन व्यवहार में भी। कदाचित यही कारण है कि तकनीक के बढ़ते दबाव के बावजूद उन भाषाओं में वैसी विकृतियां कम देखी जा रही हैं जो हिन्दी अंचल में दिखती हैं। बांग्ला, मराठी, कन्नड़, मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में रंगमंच की अपनी एक समृद्घ दुनिया है। व्यस्त मशीनी जीवन के बीच फुर्सत निकालकर लोग उनसे अपने मानसिक विक्षेपों का निदान करते हैं। नाटक देखना उनके जीवन में केवल रुचि या शौक का विषय नहीं है, उनकी आवश्यकता भी है। हालांकि पहले की स्थिति वहां भी नहीं रह गई है, किन्तु उतनी बुरी नहीं है जितनी कि वह हिंदी भाषी-समाज में है। मुझे लगता है कि ऐसे विषयों पर बात करते हुए हम अक्सर सामान्यीकरण का शिकार हो जाते हैं और हिन्दी भाषी समाज की दुर्दशा को देश की दुर्दशा मानकर विचार करने लगते हैं। यह पूरी तरह सच नहीं है। इसका असल कारण यही है कि हिन्दी क्षेत्र में कभी कोई सांस्कृतिक आंदोलन नहीं हुआ, न भाषा के स्तर पर और न संस्कृति के स्तर पर। इसका नतीजा यह हुआ कि जहां हिन्दी स्वयं भाषा के स्तर पर अराजकता का शिकार हुई, वहीं संस्कृति के स्तर पर कभी उसकी बदहाली दूर ही नहीं हुई।

आजादी के बाद जिस पश्चिमी ढंग के 'प्रोसिनियम थिएटर' को आधुनिकता का पर्याय मानकर विकसित किया गया, उससे स्थिति अधिक खराब हुई। इसका असर यह हुआ कि पारंपरिक ढंग के रंग संस्कारों ने आधुनिक रंगमंच को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। इससे यह हुआ कि कथित आधुनिक रंगमंच सिर्फ नगरों तक केंद्रित होकर रह गया। इसके समानांतर हिन्दी क्षेत्र की नाट्य शैलियां-नाच, नाचा, माचा, बिदापत, कीर्तनिया, बिदेशिया, नौटंकी, स्वांग या भगत जैसी अनेक कलाएं प्रश्रय और संरक्षण के अभाव में विलुप्ति की कगार पर आ गईं। यह आश्चर्य होता है कि जिन पारम्परिक नाट्य शैलियों ने पश्चिमी ढंग के नाट्य व्यवहार के साथ-साथ पारसी रंगमंच के भोंडेपन का विरोध कर हिन्दी पट्टी के रंग संस्कारों को बचाए रखा था, आजादी के बाद उनकी कोई सुधि नहीं ली गई। जिन्हें हमने आधुनिक रंगमंच माना और जिनके प्रशिक्षण और संरक्षण के लिए बड़े नाट्य विभाग और नाट्य विद्यालय बनाए, उन्होंने भी हिन्दी पट्टी की पारम्परिक नाट्य शैलियों की अनदेखी की। स्थिति तो तब और विकट हो गई जब हमारे कथित मुख्यधारा का रंगमंच हिन्दी का एक समग्र रंगमंच तक तैयार न कर सका और वह विदेशी नाटकों के अनुवाद, हिन्दीतर भाषाओं के नाटकों के रूपांतरण तथा कथा-कविता के नाट्यान्तर का रंगमंच बन गया।

यह आजादी के बाद के हिन्दी रंगमंच की दु:खद सच्चाई है जिसमें अधिकतर नाटक भी वही लिखे और खेले गए जो नगरीयबोध के दर्शकों की रुचियों के अनुकूल थे। निसन्देह नाटक-रंगमंच में वह शक्ति है जो मनुष्य की यांत्रिकता को रचनात्मक प्रवृत्तियों से शमित कर सके। वह उसे वैचारिकता और कल्पनाशीलता से सम्पन्न कर सके। उसमें दया, माया और करुणा का भाव पैदा कर सके। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है- 'विभावानुभाव संचारी संयोगद्रस निष्पति।' अर्थात विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पति होती है। यह रस जीवन आनन्द है। यही हृदय का स्पंदन है और उसका सुख है। तैत्तिरीय उपनिषद कहता है-'रसो वै स:। रसं ह्योवायं लब्धवानन्दी भवति।' अर्थात वह रस स्वरूप है। जो इस रस को पा लेता है, वही आनन्दमय बन जाता है। रस ही परम अनुभति है। वही ईश्वर है और वही अनिर्वचनीय सुख भी। नाटक चूंकि समग्र कला है, इसलिए उसमें यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य को हर तरह की यांत्रिकता से मुक्त कर उसे चिन्तनशील और विवेकवान बनाए रख सके। उसके हर प्रश्न का समाधान दे और समस्त जीवन मूल्यों के साथ उसे जीने की प्रेरणा दे। जीवन अंतत: लीलारूप है। नाटक उस लीलाभाव का साक्षात्कार है। मनुष्य उसे अंगीकार कर अपनी उन सभी प्रवृत्तियों से बचने की राह खोज लेता है जो उसे मनुष्य होने से रोकती हैं। जीवन में करुणा, हास, राग, विराग, शोक और क्रोध को मनुष्य के जाग्रत विवेक के साथ संगति बिठाकर नाटक सभी विकृतियों से मुक्त करता है।

विकट समय में भी नाटक ही ऐसा कलारूप है जो मनुष्य की संवेदनशीलता और विचारप्रवणता जाग्रत बनाए रख सके। इसके लिए आवश्यक है कि जहां हम नाटक देखने की तरफ प्रेरित हों, वहीं यह भी अनिवार्य है कि नाटक-रंगमंच को हमारे जीवन-व्यवहार में शामिल करने के प्रयास भी किए जाएं। जब तक नाटक हमारे दैनंदिन जीवन का हिस्सा नहीं बनेगा, तब तक हमारे भीतर रंग संस्कार निर्मित नहीं हो सकेगा।

ज्योतिष जोशी, आलोचक व कलाविद और सीनियर फेलो,
प्रधानमंत्री संग्रहालय और पुस्तकालय, नई दिल्ली