पत्रिका, आज हर परिवार का गौरव है। पत्रिका के बहुसंस्करणीय स्वरूप ने इसे जन-जन का प्रतिनिधि बना दिया। दूर-दराज गांवों की अंधेरी दुनिया भी प्रकाशित हो गई। वहां की नई पीढ़ी को मुख्य धारा से जुडऩे का, नए युग की नई तकनीक से परिचित होने का अवसर मिल गया। उनकी सुप्त व्यथाओं को आवाज मिली, संघर्ष करने को नेतृत्व मिला। पत्रिका के अनेकों अभियान इस तथ्य के प्रमाण हैं। पत्रिका ने पाठक के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया, सम्मान बनाए रखने, भ्रष्टों से सचेत करने, भावी कष्टों के संकेत देने, आत्मभाव को सुदृढ़ करने, सामाजिक सरोकारों के माध्यम से माटी से जुड़े रहने के निरन्तर प्रयास किए। प्रदेश में लुप्तप्राय: हो रहे गोडावण के संरक्षण को लेकर न केवल सरकार का ध्यान आकर्षित किया बल्कि उसे राज्यपक्षी का दर्जा दिलाने तक का काम पत्रिका ने ही किया। पिछले दिनों ही राजस्थान हाईकोर्ट ने सरकार से गोडावण के संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों की मौजूदा स्थिति का ब्यौरा भी मांगा है। गिद्ध संरक्षण के लिए भी पत्रिका के जो प्रयास हुए वे सबके सामने हैं।
साचार पत्र का प्रकाशन एक पवित्र कार्य है और समाज के कामों में भी उसे भागीदारी करनी चाहिए। इस निहित उद्देश्य का पत्रिका ने हमेशा ध्यान रखा है। पत्रिका के सामाजिक सरोकारों में ‘हरियाळो राजस्थान’ और ‘अमृतं जलम्’ अभियान तो जैसे जनआंदोलन बन गए हैं। हर साल न केवल राजस्थान में बल्कि इसके प्रकाशन वाले सभी प्रदेशों में पौधारोपण और जलसंरक्षण के इन प्रयासों में लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। जलसंरक्षण के क्षेत्र में काम करने के लिए पत्रिका को केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत भी किया है।
बाड़मेर में तेल की खोज और उसका दोहन कर राजस्थान की तस्वीर बदलने के पत्रिका के ‘मिशन राजस्थान’ अभियान ने ही प्रदेश में रिफाइनरी की राह खोली। पिछले वर्षों में ऐसे भी सैंकड़ों मौके आए हैं जब राजस्थान-मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में उच्च न्यायालयों ने पत्रिका में प्रकाशित समाचारों की गंभीरता और विश्वसनीयता को देखते हुए स्वत: ही प्रसंज्ञान लिया और सरकारों को कार्रवाई के लिए मजबूर किया। जयपुर के रामगढ़ बांध पर अतिक्रमण का विषय हो या फिर अमानीशाह नाले का, पत्रिका की खबरों पर हाईकोर्ट ने अतिक्रमण हटाने के निर्देश भी दिए।
मानव में जिस प्रकार अहंकृति-प्रकृति-आकृति के सूत्र होते हैं, वैसे ही पत्रिका के व्यक्तित्व के भी सूत्र हैं-जिसमें पाठक अहंकृति (आत्मा) है, सच्चाई प्रकृति है और प्रसार की गुणवत्ता आकृति है। पत्रिकाकर्मियों ने इसे नैसर्गिक स्वरूप दे दिया। यही श्रम है, यही तप है। अत: कर्मी भी पत्रिका है-पाठक भी पत्रिका है। यही कृष्ण के ‘वसुधैव कुटु्बकम्’ का स्वरूप है। पत्रिकाकर्मी जहां भी रहते हैं, पत्रिका के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘मैं पत्रिका हूं’ की अवधारणा के साथ समाज के सुख-दु:ख में भागीदार बनते हैं। मैं सबका हूं, सब मेरे हैं। शायद यही कारण भी है कि न केवल कर्मियों की, बल्कि वितरक-एजेण्ट-पाठक वर्ग की भी तीन-तीन पीढिय़ां पत्रिका से जुड़ सकीं।
पत्रिका स्पे्रषण का माध्यम है। अपने मूल-स्वतंत्र विचारों के लिए जाना जाता है। न किसी की नकल करता है, न किसी का अनुसरण। देश में आज कितने व्यवसाय नए पैदा हो गए जो विदेशी मूल के हैं। इनमें भारतीय संस्कृति की कहीं छाप नहीं है। अपने ग्राहकों के लिए भी आज तक विदेशी ही हैं। पत्रिका के स्वरूप में इनका कोई प्रभाव नहीं है। यह आम आदमी के बीच, उसकी जिन्दगी में भागीदारी भी है और उसी का प्रतिनिधि भी है। पाठक के स्मान में सर्वस्व त्याग को सदा तत्पर रहा है। बिना पाठकों के तो पत्रिका भी एक ठूंठ ही होगा।
पत्रिका की जड़ में है स्वधर्म का बोध। कुछ कर जाना, कुछ दे जाना, पेड़ की तरह सबको एक सूत्र में जोड़े रखना। न हमको पाठक जानता है, न हम पाठकों को जानते हैं। भगवान को भी नहीं जानते हैं। पाठक और भगवान दोनों ही भाव के भूखे हैं। जैसे तीर्थों में पुजारी, व्यापारी हो गए वैसे ही मीडिया में भी हो गए। पेड न्यूज, नकल, फेक न्यूज, आंकड़ों का मायाजाल, सरकारी सेवा-चौथा पाया बनकर-इसी के स्वरूप हैं। कलियुग में यह सब होंगे। हमारा विवेक साथ न छोड़े। हमारा लक्ष्य है ‘अपने जीवन को सार्थकता देना।’ समय बिताना नहीं, हंसी में-मौज मस्ती में उड़ाना नहीं है। जैसे आप पत्रिका से अपेक्षा रखते हैं, वैसे ही समाज भी आप से अपेक्षा रखता है। हम सबको मिलकर माटी का गौरव भी बढ़ाना है। समाजकंटकों से संघर्ष भी करना है। आओ! समय के साथ आगे बढ़ें, ऊपर भी उठें! नमस्कार! बधाई!!