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तेल की आग

यह समय कमाई की चिंता में डूबने की बजाए जनता के घावों पर मरहम लगाने का है। तेल की आग में लोग खुद को झुलसा हुआ महसूस कर रहे हैं।

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Sunil Sharma

May 26, 2018

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देश में जब हर कोई अपनी कमाई की चिंता के फेर में डूबा हो तो भला जनता की परवाह करेगा कौन? पेट्रोल-डीजल के दाम आम जनता को खून के आंसू रुला रहे हैं लेकिन सुध लेने वाला कोई नहीं। अब तो नीति आयोग भी अनीति की बात पर उतर आया है। राज्यों को तेल की कीमतें कम करने के लिए वैट में कटौती की सलाह दे रहा है ताकि केन्द्र की कमाई पर कोई असर न पड़े। जनता पिसती है तो पिसती रहे।

सरकारों को समझना होगा कि पेट्रोल-डीजल आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी से जुड़ा पहलू है। इनके दाम उछलने का असर समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। महंगाई इस कदर बढ़ती है कि कोई भी वस्तु बढ़ते दामों से अछूती नहीं रहती। चार साल पहले केन्द्र में भारी बहुमत से जीतकर आई मोदी सरकार ने पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को भी चुनावी मुद्दा बनाया था। जनता को भरोसा दिलाया था कि वे सत्ता में आए तो कीमतों पर नियंत्रण रखेंगे। अब हालत ये है कि पेट्रोल-डीजल के दाम रोजाना बढ़ रहे हैं। लेकिन ‘अच्छे दिन’ के सपने दिखाने वाली सरकार अपनी कमाई की चिंता में ही डूबी है।

हमारा पड़ोसी पाकिस्तान भी हमारी तरह तेल का आयात करता है। उसी भाव पर, जिस पर हम करते हैं। लेकिन वही पेट्रोल पाकिस्तान में ५२ रुपए प्रति लीटर के हिसाब से बिक रहा है। श्रीलंका में पेट्रोल के दाम ६३ रुपए और डीजल के दाम ४७ रुपए प्रति लीटर है। इन दोनों देशों से भी तेल कीमतों का प्रबन्धन समझा जा सकता है। केन्द्र को मिलने वाले राजस्व का १४ फीसदी हिस्सा पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले टैक्स से होता है। सन् २०१६-१७ में केन्द्र सरकार को इससे दो लाख ७३ हजार करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ। पानी अब सिर से ऊपर गुजर रहा है।

यह समय कमाई की चिंता में डूबने की बजाए जनता के घावों पर मरहम लगाने का है। तेल की आग में सब लोग खुद को झुलसा हुआ महसूस कर रहे हैं। वे सब-कुछ समझ भी रहे हैं। जनता के धैर्य की परीक्षा लेने की भी एक सीमा होती है। दरअसल, यहां मुद्दा केन्द्र और राज्य सरकारों की टैक्स वसूली का नहीं, बल्कि जनता को राहत दिलाने का है। होना तो यह चाहिए कि केन्द्र व राज्य, दोनों सरकारें मिलकर ऐसा रास्ता निकालें जिससे जनता को राहत मिल सके। प्रयास ये होने चाहिए कि राहत स्थायी हो ताकि फिर ऐसे ‘बुरे दिन’ देखने की नौबत नहीं आए। वर्ना समय आने पर जनता हिसाब चुकता करने में कसर नहीं छोड़ती है। लोकतंत्र का यही तकाजा है कि यदि सरकार अपने तरीके से फैसले लेती है तो जनता भी अपने तरीके से फैसला सुनाती है।