
महापाप से बचो
प्रवाह (Pravah): संसदीय समिति की एक रिपोर्ट के बाद इन दिनों एक मुद्दा चर्चा में आ गया है। यह मुद्दा है- भूजल के दोहन का। जहां देखो भूगर्भ से पानी खींचने की होड़ लगी है। जो काम हमारी धमनियों-शिराओं में रक्त करता है, वही काम धरती मां की शिराओं में बहता पानी व अन्य द्रव करते हैं। हम अपनी प्यास बुझाने के लिए भूजल को खींच लेते हैं। प्यास तो फिर भी ठीक है- अब तो भवन बनाने, सिंचाई करने, कल कारखाने चलाने और यहां तक कि शीतल पेय बनाने के लिए भी भूजल का अंधाधुंध अवशोषण हो रहा है। 140 साल पहले एक कानून बनाया गया था, जिसमें जमीन के मालिक कोअपनी जमीन के नीचे स्थित पानी के दोहन का पूरा हक दिया गया था। यह स्थिति अब भी जारी है। अब अपनी जमीन तो क्या आस-पास की जमीन के नीचे का पानी भी खींचा जा रहा है। गहराई तक जाने की तो कोेई सीमा ही नहीं है। अर्थात इंसान दोहन की अति भी पार करने लगा है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति तो फिर भी ठीक है- वहां प्रकृति ने नदियों, जलाशयों, झरनों की कमी नहीं रखी। जितना जल निकाला जाता है, लगभग उतना धीरे-धीरे पुन: धरती के गर्भ में चला जाता है, लेकिन राजस्थान की स्थिति गंभीर है। यहां 295 ब्लॉक में से 219 ब्लॉक अतिदोहन की स्थिति में हैं। यानी डार्क जोन हैं।
केन्द्र सरकार ने डार्क जोन में भी भूजल निकालने की छूट दी तो राजस्थान सरकार ने भी बिना राज्य की भौगोलिक स्थिति की समीक्षा किए, राज्य में भी छूट दे दी। हालांकि यह छूट पांच श्रेणियों में ही दी गई, पर बिना निगरानी तंत्र के इसे कौन मानता है। जिसका जहां जी चाहे, मनमाने ढंग से पानी निकाल रहा है। न धरती का दर्द है और न आने वाली पीढ़ियों की चिंता- बस कमाई की होड़ है।
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रही-सही कसर सरकारी नीतियां कर रही हैं। राजस्थान में सिंचाई के लिए बूंद-बूंद सिंचाई और फव्वारा सिंचाई जैसी तकनीकों पर जोर देना चाहिए। पर हो क्या रहा है। मंत्री-अफसर हर साल इजराइल की यात्रा सरकारी खर्चे पर कर आते हैं। दो-चार बैठकों में वहां देखी योजनाओं को बखान करते हैं- और फिर भूल जाते हैं।
प्रदेश में कुल 171 लाख हेक्टेयर में खेती होती है। इसमें से 82 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की जरूरत पड़ती है। मात्र 17 लाख हेक्टेयर में ही बूंद-बूंद, फव्वारा जैसी कम पानी आधारित सूक्ष्म तकनीक काम में ली जाती है। यह है हमारे जल संसाधन विभाग की 75 साल की उपलब्धि! अनुदान की योजनाएं अफसरों-इंजीनियरों के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। दूसरे, इसमें उनको उतना 'लाभ' भी नहीं होता जितना नहरें बनाने और ड्रिल करवाने में होता है। फिर कौन राज्य हित के पचड़े में पड़े!
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होना तो यह चाहिए कि राज्य सरकार दूरगामी कदम उठाते हुए जल के अतिदोहन को रोकने के लिए कड़े कानून बनाए। सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियों को बढ़ावा दे। बीसलपुर जैसी योजनाएं तो पेयजल के लिए भी पूरी नहीं पड़ती। धरती मां पर 'अति' जारी रही तो उसकी सब्र की सीमा ज्यादा नहीं रहेगी। क्रोध आ गया तो उसके कहर से कोई नहीं बच पाएगा।
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Updated on:
03 Jan 2023 05:40 pm
Published on:
03 Jan 2023 02:53 pm
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