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दारोमदार रिजर्व बैंक पर

कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और भारी मात्रा में विदेशियों द्वारा डॉलरों का बहिर्गमन देश में डॉलरों की मांग बढ़ा रहा है और रुपए के अवमूल्यन का कारण बन रहा है।

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जयपुर

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Sunil Sharma

Sep 26, 2018

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- अश्विनी महाजन, आर्थिक मामलों के जानकार

भारतीय रुपया एक बार फिर संकट में है और करीब गत एक माह में यह 68.7 रुपए प्रति डॉलर से 18 सितंबर तक 73.15 रुपए प्रति डॉलर तक पहुंच गया। उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस बाबत कमान संभालने के बाद 21 सितंबर तक रुपया 95 पैसे प्रति डॉलर सुधर कर 72.20 रुपए प्रति डॉलर तक पहुंच गया।

किसी भी अन्य केंद्रीय बैंक की तरह भारतीय रिजर्व बैंक भी विदेशी मुद्रा का संरक्षक और नियंत्रक माना जाता है। हालांकि वर्तमान में विदेशी मुद्रा विनिमय दर (रुपए का विदेशी मुद्रा के रूप में मूल्य) बाजार की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है, लेकिन रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप भी विनिमय दर निर्धारित करने में अहम भूमिका का निर्वहन करता है। उदाहरण के लिए बाजार में रुपयों में डॉलर का मूल्य (विनिमय दर) डॉलर की मांग और पूर्ति के आधार पर तय होता है। डॉलरों की पूर्ति वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात और विदेशी निवेश द्वारा होती है और डॉलरों की मांग वस्तुओं और सेवाओं के आयात और विदेशी निवेश के बहिर्गमन से तय होती है। ऐसे में यदि डॉलरों की मांग, पूर्ति से ज्यादा हो जाती है तो रुपए का अवमूल्यन होता है यानी प्रत्येक डॉलर के लिए ज्यादा रुपए देने पड़ते हैं।

आज विदेशी विनिमय बाजार में यही हो रहा है। कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और भारी मात्रा में विदेशियों द्वारा डॉलरों का बहिर्गमन देश में डॉलरों की मांग बढ़ा रहा है और रुपए के अवमूल्यन का कारण बन रहा है। यदि रिजर्व बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार से राशि निकालकर बाजार में डॉलरों की आपूर्ति बढ़ा दे तो स्वाभाविक रूप से रुपए का अवमूल्यन रुक सकता है, लेकिन कुछ दिन पूर्व तक रिजर्व बैंक इसके लिए तैयार नहीं था।

रिजर्व बैंक का यह कहना कि वह बाजार में हस्तक्षेप नहीं करेगा, कई कारणों से सही नहीं है। प्रधानमंत्री ने जब सत्ता के सूत्र संभाले थे, तब देश का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 312.4 अरब डॉलर ही था, किंतु उसके बाद विदेशी मुद्रा भंडार 400 अरब डॉलर से भी अधिक पहुंच गया। इसमें विदेशी निवेश का बड़ा योगदान रहा, चाहे वह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश रहा हो या पोर्टफोलियो निवेश। दिलचस्प बात यह है कि जब विदेशी संस्थागत निवेशक भारत के प्रतिभूति बाजार में निवेश करते हैं, तब रिजर्व बैंक उस राशि से विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाता है।

विदेशी संस्थागत निवेशकों के आने के बाद भी रुपए का मूल्य नहीं बढ़ पाता, संभवत: इसके पीछे एक कारण यह है कि रुपए का मूल्य बढऩे से निर्यातकों को नुकसान होगा या आयात बढ़ जाएगा। लेकिन जब विदेशी संस्थागत निवेशक निवेश वापस ले जाते हैं तो रिजर्व बैंक का रुपए को बाजार शक्तियों के अधीन कहकर हस्तक्षेप करने से इनकार कर देना सैद्धांतिक तौर पर गलत है। यदि विदेशी संस्थागत निवेश के चलते डॉलरों की आपूर्ति से रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाता है तो विदेशी निवेशकों के बाहर जाने पर रिजर्व बैंक डॉलरों की आपूर्ति क्यों नहीं बढ़ाता?

यह बात सही है कि बढ़ती तेल कीमतों और उसके कारण बढ़ते भुगतान घाटे पर सरकार का नियंत्रण नहीं हो सकता। दूसरी ओर, अमरीकी प्रशासन द्वारा आयकर दरों में भारी कटौती, अमरीका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने और अन्य अंतरराष्ट्रीय कारणों से विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्गमन पर भी भारत का कोई नियंत्रण संभव नहीं है। लेकिन विदेशी संस्थागत निवेशकों को अनुशासित करते हुए उनके बहिर्गमन को रोकने के प्रयास किए जा सकते हैं।

गौरतलब है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों को लाभ पर कोई कर नहीं देना पड़ता, इसलिए वे कभी भी निवेश को बाहर ले जाते हैं। लंबे समय से ऐसे निवेशकों पर निवेश की शर्त के रूप में लॉक-इन-पीरियड (न्यूनतम तय समयावधि) की मांग की जाती रही है। इसके अलावा कई मुल्कों में संस्थागत निवेशकों द्वारा धन बाहर ले जाने पर कर लगाया जाता है, जिसे 'टोबिन टैक्स' के नाम से जाना जाता है। इसके जरिए विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्गमन को हतोत्साहित किया जा सकता है।

वर्तमान समय में रुपए के गिरते मूल्य का मुख्य कारण विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा भारत में प्रतिभूतियों को बेच कर राशि बाहर ले जाना बताया जा रहा है। ऐसे में अल्पकाल में डॉलरों की मांग बढ़ी है और डॉलरों की अपर्याप्त सामान्य आपूर्ति के मद्देनजर रुपए का मूल्य गिर रहा है। बाजार में डॉलरों की थोड़ी-सी कमी भी रुपए के मूल्य में भारी अवमूल्यन लाती है। वर्ष 2018 के पहले 8 महीनों में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ 11 अरब डॉलर कम हुआ है। ऐसे में इस अल्पकालिक समस्या से निपटने के लिए रिजर्व बैंक को बाजार में हस्तक्षेप करते हुए डॉलरों की आपूर्ति बढ़ानी चाहिए और रुपए का अवमूल्यन रोकना चाहिए।

यह समझना होगा कि रुपए का अवमूल्यन देश पर तरह-तरह के बोझ बढ़ाता है। बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार भविष्य के प्रति आश्वस्त तो करता है, लेकिन इस पर आमदनी लगभग शून्य है। जरूरी है कि रुपए का मूल्य स्थिर रखा जाए। सरकार की ओर से जारी बयान, कि भारतीय मुद्रा का प्रति डॉलर 68 से 70 रुपए का स्तर कायम रखना जरूरी है, को फलीभूत करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करना होगा ताकि रुपए में आगे और गिरावट न आए।