
शरीर ही ब्रह्माण्ड : मैं ही शाश्वत आत्मा
गुलाब कोठारी (प्रधान संपादक, राजस्थान पत्रिका समूह)
अत्मा अपने आप में कोई गुत्थी नहीं है। स्पष्ट न होने का कारण यही है कि हम शरीर का ही अस्तित्व मानकर जीते हैं, कर्म करते हैं। आत्मा को जानने के प्रश्न हमारे मन में उठते ही नहीं। हां, शास्त्रों को सुनते समय हम आत्मा का विवेचन भी सुनते हैं, किन्तु स्वयं से जोड़ नहीं पाते। अपने से भिन्न किसी वस्तु को आत्मा मान लेते हैं। हम सुनते हैं-'अहं ब्रह्मास्मि'। किन्तु व्यवहार में हम शरीर और मन के बाहर नहीं जाते। अपने वातावरण में फंसे रहते हैं। जबकि सत्य यह है कि हम शरीर नहीं हैं, मन भी नहीं हैं। शरीर, मन, बुद्धि हमारे साधन हैं, नश्वर हैं। हम आत्मा के स्वरूप में शाश्वत हैं।
सृष्टि क्रम में सूर्य को ही जगत् का आत्मा कहा है। 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च' श्रुति वाक्य है। उपनिषद् में एक आख्यान आता है कि सूर्य के अभाव में रात्रि में कौन मार्ग दिखाता है। इसके उत्तर क्रम में चन्द्रमा, नक्षत्र, अग्नि, शब्द और अन्त में आत्मा का विवेचन है। अर्थात् आत्मा सूर्य का प्रतिबिम्ब ही है। सूर्य ही आत्मा है।
सूर्य का उत्तराद्र्ध (पृथ्वी की अपेक्षा) भाग अमृत है और दक्षिणाद्र्ध भाग मृत्यु रूप है। मृत्यु लोक से सम्बन्ध रखता है। अमृत भाग ऊपर द्युलोक से सम्बन्ध रखता है। ईश्वर भाग है। सूर्य ब्रह्माण्ड का हृदय है। इसमें तीनों अक्षर प्राण (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र) मिलकर महादेव कहलाते हैं। यह अमृत अंश का हृदय है। इसकी प्रतिकृति नीचे के अद्र्धगोलक में आत्मक्षर कहलाती है। ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राणों से क्रमश: प्राण-आप-वाक् रूप हृदय बनता है। यही क्षर सृष्टि है। अक्षर सृष्टि की अग्नि-सोम कलाएं यहां अन्नाद और अन्न बन जाती हैं। मृत्युलोक क्षर सृष्टि का ही नाम है। इसका मतलब यह है कि हमारे आत्मा के दो भाग हैं-एक ईश्वर (अमृत) और दूसरा जीव (मत्र्य)। विश्व के हृदयस्थ आत्मा का वही स्वरूप है, जो कि हमारे आत्मा का है। प्रकृति दोनों के साथ समान रूप से कार्य करती है। प्रकृति के नियम सभी प्राकृतिक पदार्थों पर एक समान लागू होते हैं। अर्जुन का भी था और आज मेरा और हम सबका भी, आत्मा का यही स्वरूप है।
आत्मा शब्द का व्यवहार तीन विधाओं में होता है। आत्मा सर्वनाम है-मृत्तिका (मिट्टी) रूप आत्मा, पत्थर रूप आत्मा आदि। सनिरूपक है यानी 'किसका आत्मा' रूप में जिज्ञासा होना। तीसरा संज्ञा रूप आत्मा। आत्मा कहीं भी अपने अन्त:प्रवेश रूप गूढ़ भाव को नहीं छोड़ता। आत्मा रस रूप है, बल इसकी शक्ति है। शक्ति विहीन रस कभी नहीं होता। आत्मा सदा एक रूप में नित्य है, बल अनन्त हैं। साथ ही प्रवाहनित्य है। संसार में जन्म-मृत्यु का प्रवाह नित्य बना रहता है। अनन्त भावों में यह शक्ति जिस तत्त्व में विशेष रूप से भावित हो रही है, वही आत्मा है। कहीं-कहीं एक कर्म पर अन्य कर्मों की चिति (चिनाई) होती है, वहां आधार कर्म को आत्मा कह देते हैं। हालांकि कर्म क्षेत्र में प्रविष्ट होकर भी शुद्ध आत्मा तो साक्षी ही रहता है। बल का उसमें प्रवेश कभी नहीं होता। कर्मरूप आत्मा कहीं भोक्ता है, कहीं अभोक्ता है।
आत्मा से हम गीता के अनुसार अव्यय, अक्षर, क्षर इन तीन पुरुषों का ग्रहण करेंगे। एक ही विशुद्ध आत्मा तीन भागों में विभक्त हो जाता है। तीनों में तीनों गौण-प्रधान रूप से बने रहते हैं। अक्षर-क्षर के गर्भ में अव्यय पुरुष अव्ययात्मा है। इसी प्रकार अक्षरात्मा एवं क्षरात्मा को समझना चाहिए। अव्यय ज्ञान, अक्षर क्रिया और क्षर अर्थ रूप हैं। अर्थ-क्रिया यानी क्षर-अक्षर को गर्भ में रखने वाला ज्ञानमूर्ति अव्यय ही परमात्मा है। ज्ञान एवं अर्थघन अव्यय एवं क्षर को गर्भ में रखने वाला जीवात्मा या कर्मात्मा है। ज्ञान-क्रिया गर्भित क्षर ही भौतिक विश्व है। जीवात्मा ही भौतिक विश्व से जुड़कर भूतात्मा कहलाता है। यही जब अव्ययात्मा से जुड़ जाता है, तब परमात्मा कहलाता है। भूतात्म भाव में यह सुख-दु:ख जैसे द्वन्द्व भावों से युक्त रहता है।
महाभारत के शान्ति पर्व में परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप को बताते हुए कहा है कि परमात्मा नित्य और निर्गुण कहे गए हैं। कर्मात्मा वह है जो मोक्ष और बन्धन के साथ जुड़ता है।
'तत्र य: परमात्मा हि स नित्यं निर्गुण: स्मृत:।
कर्मात्मा त्वपरो योऽसौ मोक्षबन्धै: स युज्यते।'
गीता में अर्जुन भूतात्मा रूप है और कृष्ण परमात्मा रूप। एक व्यवहार सत्य है, दूसरा परमार्थ सत्य। अव्यय की ओर दृष्टि होने पर सुख-दु:ख आदि क्षर मूलक द्वन्द्व से होने वाला शोक समाप्त हो जाता है। ऐसे में किए गए कर्म आसक्तिजनक नहीं होते।
आत्मा स्वयं में ज्ञान रूप है। अर्थात् जीवात्मा और ज्ञान भी पर्याय ही हैं, सत्य है। ज्ञान ही जीवात्मा का परिचय कराता है या बन जाता है। कुछ भी कार्य करने से पूर्व हम जान लेते हैं कि क्या मैं यह कार्य कर सकता हूं। यह भी जान पाता हूं कि परिणाम क्या निकलेगा। यह निष्कर्ष कौन निकालता है? किसको यह ज्ञान होता है? यही जीवात्मा है। यही 'मैं' भी हूं। कृष्ण आत्मा के स्वरूप को भी व्यापक अर्थ देते हुए कहते हैं कि 'न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, अथवा तू नहीं था, ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।' (गीता 2.12)। यहां कृष्ण ने आत्मा-परमात्मा के भेद को भी मिटा दिया। परमात्मा को अपने जन्म याद हैं, जीवात्मा/कर्मात्मा को माया के भ्रम के कारण याद नहीं है। ब्रह्म रस रूप में केन्द्र में गूढ़ात्मा है, माया उसकी अभिव्यक्ति रूप विश्व है। माया बल से ही ब्रह्म की उपस्थिति का ज्ञान होता है। माया के संकोच से ही तो परमात्मा आत्म-रूप बनता है। सृष्टि काल में सत्, चित्, आनन्द रूप होता है। कृष्ण तो यह भी स्पष्ट कर गए कि मैं ही आत्मा बनकर जीवात्मा रूप धारण करता हूं- 'मैं' हमारे लिए भी आत्मा का वाचक ही माना जाएगा। यही तो मेरा स्वयं के लिए सम्बोधन भी है और आत्मा का रूप भी है।
आत्मा सत् है, नित्य है। शरीर, प्राण परिवर्तनशील है, असत् है। यह भी एक बड़ा रहस्य है। शरीर की अवस्थाओं में परिवर्तन (बालपन-युवा-वृद्धा अवस्था) की तरह नए शरीर की प्राप्ति भी आत्मा के लिए देह का परिवर्तन ही है।
'देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्मति ॥' (गीता 2.13)
कृष्ण आत्मा के संदर्भ में मृत्यु को मात्र परिवर्तन कह रहे हैं। यह पुनर्जन्म के सिद्धान्त तथा कर्मफल के सिद्धान्त का महत्वपूर्ण प्रमाण है।
यह असंग है, निर्लेप है, गुणातीत है और सदा साक्षी भाव में रहता है। अत: कर्ता भी नहीं हो सकता। व्यापक और पूर्ण है। जैसा कि अष्टावक्र गीता (1.12) में कहा है-
'आत्मा साक्षी विभु: पूर्ण एकोमुक्तश्चिदक्रिय:।
असंगो निस्पृह: शान्तो भ्रमात्संसारवानिव ॥'
आत्मा में किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है, शान्त है। चैतन्य रूप है और सभी प्रकार की प्रक्रियाओं से परे है। फिर यदि सांसारिक स्वरूप वाला जान पड़ता है तो यह हमारा भ्रम है। क्योंकि जब मैं स्वयं ही ब्रह्म हूं, तब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मेरा ही वितान यानी फैलाव है। मैं ही सृष्टि में व्याप्त हूं। मैं ही पूर्ण भी हूं।
क्रमश:
Updated on:
13 Nov 2021 10:36 am
Published on:
13 Nov 2021 10:11 am
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