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खालसा पंथ की स्थापना से बदल गई इतिहास की दिशा

देश की जिस सामाजिक, धार्मिक व आध्यात्मिक एकता को रेखांकित व सशक्त करने का कार्य गुरु नानक देव ने शुरू किया था, उसकी सम्पूर्णता 1699 में खालसा पंथ की स्थापना के साथ हुई। सिख राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए सदैव आगे रहे हैं।

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Patrika Desk

Apr 13, 2023

खालसा पंथ की स्थापना से बदल गई इतिहास की दिशा

खालसा पंथ की स्थापना से बदल गई इतिहास की दिशा


जसबीर सिंह
पूर्वअध्यक्ष राजस्थान अल्प संख्यक आयोग


पूरे विश्व में सिख परम्परा को मानने वाले श्रद्धालु प्रत्येक वर्ष 13 या 14 अप्रेल को वैसाखी का पर्व उत्साह से मनाते हैं। इस दिन गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की शुरुआत की थी। उन्होंने वर्ष १६९९ में अपने अनुयायियों और आम जन को अपने पिता गुरु तेग बहादुर द्वारा स्थापित आनन्दपुर साहिब में वैसाखी पर्व को जोशो-खरोश से मनाने के लिए आने का आमंत्रण भेजा। गुरु जी के आह्वान का जादुई असर हुआ। संचार व सूचना भेजने के सीमित साधन होने के बावजूद देश के दूर-दराज के कोने-कोने से लगभग 80000 लोगों का जन समूूह वहां एकत्रित हो गया। गुरु जी ने उस दिन पाठ, जप व तप किया। इसके पश्चात संगत के दीवान में प्रस्तुत हुए। पूरा वातावरण 'बोले सो निहाल सत श्री अकाल ' के जय घोषों के साथ गंूज उठा। भाई मणी सिंह ने आदिग्रन्थ में से शब्द वाणी पढ़कर उसकी व्याख्या की।
इसके बाद गुरु जी ने म्यान में से तलवार (कृपाण) को निकालकर हवा में लहराते हुए ललकार कर जनसमूह को कहा कि 'क्या कोई है, जो अपने गुरु व धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान देने को तैयार हो। पूरे जनसमूह में सन्नाटा छा गया। उन्होंने दूसरी बार ललकारपूर्ण आवाज में उसी आह्वान को फिर दोहराया। अब सन्नाटा भय में बदल चुका था। गुरु जी ने तीसरी बार उसी जोश के साथ फिर आह्वान किया। तब खत्री समुदाय से दया राम खड़ा हुआ और विनम्रता से बोला 'गुरुदेव मेरा शीश आपके सम्मुख हाजिर है। आपकी कृपाण से मेरी मृत्यु हो यह मेरा सौभाग्य होगा।Ó गुरु जी दयाराम को पीछे शामियाने में ले गए। कुछ ही मिनटों के बाद खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए और उसे लहराते हुए बोले कि 'एक सिर की और जरूरत है ', कुछ लोग भयभीत होकर जाने लगे। तभी दिल्ली से आए जाट समुदाय के धर्म दास उठे और कुर्बानी के लिए अपने आप को प्रस्तुत किया। गुरु जी उन्हें भी पीछे ले गए। फिर खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। इस तरह गुरु जी ने तीन बार और तलवार लहराई। गुजरात के द्वारका से मोखम चन्द 'छीबा ', उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी से हिम्मत 'झींवर ' तथा दक्षिण के बीदर से साहिब चन्द 'सैन ' उत्साहपूर्वक खड़े हुए और अपने शीश प्रस्तुत किए। गुरु जी उनको को भी ले गए। कुछ समय के बाद गुरु जी सभी पांचों लोगों को नए केसरिया वस्त्रों, पूरी साज-सज्जा, पगड़़ी, दस्तार के साथ जनसमूह के समक्ष लेकर आए। इन सभी पांचों लोंगों को जिंदा सामने देख कर जनता में हर्ष की लहर दौड़ गई। गुरु जी ने लोहे के बर्तन में जल लेकर पत्नी जीतो द्वारा लाए मीठे पतासों को जल में डालकर खंडे (दो धारी खंजर) से हिलाया और इन पांचों को छकाया और उनका नया नामकरण भी किया। साथ ही बुलंद आवाज में कहा 'गुरु की भेंट पूरी हो चुकी। अमृत छककर ये सिख सिंह बन गए हैं। ये मेरे पंज प्यारे हैं। अब इनकी आज्ञा मेरी इच्छा होगी। ' गुरु जी ने सिखों (अब सिंहों) को विशिष्ट पहचान देने के लिए पांच-क यानी कड़़ा, केश, कृपाण, कंघा व कच्छ को धारण करने के नियम बनाए। साथ ही उन्हें मर्यादा, अनुशासन, भाईचारे के साथ ऊंच-नीच के भेद को मिटाकर रहने की शिक्षा दी।
एक सिख से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पांच-क के नियमों का पालन करते हुए तम्बाकू, शराब व दूसरे किसी नशे का सेवन नहीं करेगा। साथ ही हर स्त्री की, चाहे वह शत्रु की भी हो, उसकी रक्षा करेगा। गुरु जी ने कमजोर, दीन व हीन की रक्षा करने का संकल्प प्रत्येक सिख को दिया और कहा 'सूरा सो पहचानिए जो लरै दीन के हेत, पुरजा पुरजा कट मरे कबहंू न छोड़े खेतÓÓ अर्थात 'शूरवीर उसे समझिए जो कमजोर, निर्धन व हीन की रक्षा करता है व युद्ध के मैदान में हारने की बजाय वीरगति को प्राप्त होता है। ' निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि 1699 की वैसाखी पर खालसा पंथ की स्थापना देश के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसने भारत के इतिहास की धारा को मोड़ दिया। देश की जिस सामाजिक, धार्मिक व आध्यात्मिक एकता को रेखांकित व सशक्त करने का कार्य गुरु नानक देव ने शुरू किया था, उसकी सम्पूर्णता 1699 में खालसा पंथ की स्थापना के साथ हुई। सिख राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए सदैव आगे रहे हैं।