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क्लिक और कैलोरी के जाल में उलझती नई डिजिटल पीढ़ी

मुकेश कुमार शर्मा, स्वतंत्र लेखक एवं शोधार्थी

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आधुनिक युवा जिस तेज रफ्तार जीवन में जी रहा है, वहां रसोई अब मोबाइल स्क्रीन पर सिमट चुकी है। कुछ टैप, एक ऑफर कोड और कुछ ही मिनटों में गर्म खाना दरवाजे पर। डिलीवरी ऐप्स ने इस सुविधा को जीवन का अभिन्न हिस्सा बना दिया है। लेकिन इस सहजता की चमक के पीछे एक गहरी छाया भी है- एक ऐसा मौन परिवर्तन, जो स्वाद के बहाने सेहत को धीरे-धीरे निगल रहा है।

2025 तक आते-आते ऑनलाइन फूड डिलीवरी केवल सेवा नहीं, बल्कि जीवनशैली बन चुकी है। मार्केट्स और डेटा रिपोर्ट के अनुसार, भारत का यह बाजार 2024 में लगभग 31 अरब डॉलर तक पहुंच चुका था और 2030 तक इसे 140 अरब डॉलर से अधिक होने का अनुमान है। यह वृद्धि केवल आर्थिक नहीं, सांस्कृतिक भी है- जहां कॉलेज के छात्र, नौकरीपेशा युवा और छोटे शहरों के परिवार अब फुल डे हंगर और लेट-नाइट क्रेविंग की लत के स्थायी भागीदार बन चुके हैं। ‘ऑर्डर नाऊ’ का चमकता बटन अब सुविधा का नहीं, निर्भरता का प्रतीक बन गया है।

सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को और गहरा किया है। इंस्टाग्राम पर आकर्षक खाने की तस्वीरें, यूट्यूब पर भोजन-व्लॉग्स- अब खाना केवल भूख नहीं, मनोरंजन बन गया है। चिकित्सक बताते हैं कि बार-बार मीठा, तला और अधिक नमक वाला भोजन मस्तिष्क में डोपामिन का स्तर बढ़ाता है, जिससे वही स्वाद दोहराने की इच्छा होती है। यह ‘क्लिक-क्रेविंग-साइकिल’ धीरे-धीरे नींद, वजन और मेटाबॉलिज़्म को प्रभावित करती है। यह असर अब भारतीय शोधों में भी दिखने लगा है। एससीबी मेडिकल कॉलेज, तात्कालिक अध्ययन में पाया गया कि जो छात्र सप्ताह में दो या अधिक बार ऑनलाइन भोजन मंगाते थे, उनमें मोटापे की संभावना तीन गुना अधिक थी। अध्ययन यह भी बताता है कि 36 प्रतिशत छात्र अपने भोजन के पोषण-मूल्य से अनजान थे, जबकि 65 प्रतिशत ने ‘समवयस्य प्रभाव’ को मुख्य कारण माना। इन सोशल मीडिया और फूड डिलीवरी ऐप्स का सकारात्मक पक्ष भी है। इन माध्यमों से लाखों युवाओं-महिलाओं को रोजगार मिला है।

मूल समस्या पारदर्शिता और चयन-स्वायत्तता की है। पैक किए गए खाद्य-पदार्थों पर सामग्री, कैलोरी और समाप्ति-तिथि लिखी होती है, लेकिन ऐप्स-आधारित भोजन में उपभोक्ता नहीं जानता कि खाना किस तेल में बना, उसमें कितना नमक या शक्कर है। इंग्लैंड जैसे देशों में बड़े रेस्तरां के लिए कैलोरी अंकन अनिवार्य है, जबकि भारत में एफएसएसएआई के 2020-22 के नियम अभी तक ऐप इंटरफेस पर पूरी तरह लागू नहीं हुए हैं। तृतीयक स्तर पर स्थिति और जटिल है। फूड डिलीवरी ऐप्स की एल्गोरिद्म (डिजिटल अनुशंसा प्रणाली) उपभोक्ता की पसंद के नाम पर वही दिखाती हैं, जिससे कंपनी को अधिक लाभ होता है।

अब समय है कि नीति-निर्माता और फूड डिलीवरी कंपनियां मिलकर ऐसा स्वास्थ्य-अनुकूल डिजिटल तंत्र तैयार करें, जो सुविधा और सेहत के बीच संतुलन स्थापित करें। प्रत्येक व्यंजन के साथ उसी पोषण-सूचना जैसे कैलोरी, शक्कर, नमक और वसा की मात्रा- स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की जानी चाहिए। साथ ही, युवाओं को लक्षित करने वाले जंक-फूड विज्ञापनों पर नियंत्रण आवश्यक है, क्योंकि यही प्रचार उनके भोजन व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है। कॉलेजों और हॉस्टलों में डिजिटल भोजन-जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए, ताकि युवा ‘क्लिक’ से पहले विचार करना सीखें क्योंकि यही वह पहला कदम है, जो स्वाद-निर्भरता से विवेक-संवेदनशीलता की ओर ले जाएगा। भारत की पारंपरिक थाली आज भी सबसे सशक्त विपरीत-संस्कृति स्वास्थ्य मॉडल (काउंटर कल्चर हेल्थ मॉडल) है। दाल, बाजरा, सब्ज़ी, दही और छाछ ये केवल परंपरा नहीं, पोषण-विज्ञान का संतुलन हैं। यदि इन्हें आधुनिक रूप में मिलेट बाउल, होम-स्टाइल लंच बॉक्स या हेल्दी डिलीवरी ऐप्स के रूप में पुनः प्रस्तुत किया जाए तो यह डिजिटल भोजन संस्कृति का व्यावहारिक और भारतीय विकल्प बन सकते हैं। तनीनी को रोका नहीं, दिशा दी जानी चाहिए। सुविधा अच्छी है, पर विवेक उससे भी बड़ा मूल्य है। क्लिक से पहले ठहरना, भूख से पहले सोचना और स्वाद से पहले स्वास्थ्य चुनना- यही डिजिटल युग की नई समझ है।