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समझें औपचारिक शिक्षा का महत्व और आगे आएं इसे बचाने के लिए

औपचारिक शिक्षा प्रदान करने में लगे संस्थानों की मूल बातों पर ध्यान देने का अब समय आ गया है। हम अपने स्कूलों, विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों के अस्तित्व के बारे में सोचें। इन संस्थानों में सुधार पर ध्यान दें।

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अशोक कुमार ,पूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय
किसी भी देश के विकास के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है। पिछले 30 वर्ष में भारत में उच्च शिक्षा में प्रभावशाली वृद्धि देखी गई है। लेकिन गुणवत्ता को लेकर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। पिछले कुछ दशकों के दौरान शैक्षिक परिदृश्य धीरे-धीरे औपचारिक शिक्षा की प्रकृति को बदल रहा है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, प्रबंधन क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा सबसे अङ्क्षधक है।
भारत में सबसे कठिन परीक्षाओं जैसे यूपीएससी, आइआइटी-जेईई, सीए, एनईईटी यूजी, एम्स द्वारा आयोजित परीक्षाओं में सफलता की दर बहुत कम है। आइआइटी की सफलता दर केवल 0.59 प्रतिशत है और केवल 1 प्रतिशत उम्मीदवार ही आइएएस जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल होते हैं। प्रवेश परीक्षाओं के साथ हमने समानांतर कोचिंग उद्योग को बढ़ावा दिया है। आईआईटी-जेईई की तैयारी आमतौर पर छात्रों के परीक्षा देने से दो से चार साल पहले शुरू हो जाती है। कोचिंग संस्थान केवल छात्रों को प्रवेश परीक्षा के लिए तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस परीक्षा को पास करने वाले 90 प्रतिशत से अधिक छात्र कोचिंग संस्थानों से होते हैं। कोचिंग उद्योग ने विशाल रूप ले लिया है। ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के छात्र डमी स्कूलों में दाखिला लेते हैं ताकि उन्हें इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग के लिए समय मिल सके। विद्यार्थियों को लगता है कि यदि वे कोचिंग के लिए जाते हैं और नियमित स्कूलों की कक्षाएं छोड़ देते हैं, तो वे आइआइटी की प्रवेश परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। यानी विद्यार्थी खुद को नियमित शिक्षण संस्थानों में नामांकित करते हैं, लेकिन वे अपने संस्थानों में कक्षाओं में भाग लेने के बजाय डमी स्कूलों या निजी कोचिंग कक्षाओं में जाते हैं।
क्या हम नियमित विद्यार्थियों को सिर्फ संस्थान में दाखिला लेने और कोचिंग कक्षाओं में शामिल होने के लिए मुफ्त या सब्सिडी वाली शिक्षा और छात्रवृत्ति दे रहे हैं? औपचारिक शिक्षा मात्र औपचारिक ही रह गई है। यह स्थिति सभी के लिए चेतावनी है। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो एक दिन औपचारिक शिक्षा व्यवस्था चरमरा जाएगी। आइए हम गंभीरता से सोचें और औपचारिक शिक्षा को बचाएं।
औपचारिक शिक्षा प्रदान करने में लगे संस्थानों की मूल बातों पर ध्यान देने का अब समय आ गया है। हम अपने स्कूलों, विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों के अस्तित्व के बारे में सोचें। इन संस्थानों में सुधार पर ध्यान दें। बुनियादी ढांचे, पर्याप्त वित्तीय सहायता, नियमित शिक्षण, गैर-शिक्षण कर्मचारियों की नियमित नियुक्ति, प्रवेश परीक्षा की प्रक्रिया, पाठ्यक्रम, शिक्षक-छात्र अनुपात, विश्वविद्यालयों की संबद्धता, अत्याधुनिक अनुसंधान, अनुशासन जैसे मुद्दों पर ध्यान देना आवश्यक है। हम सभी जानते हैं कि 21वीं सदी में जीवन के सभी पहलुओं में नई तकनीकों का बोलबाला है और शिक्षा कोई अपवाद नहीं है। हमारे दरवाजे पर प्रौद्योगिकी के आगमन के कारण आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए संस्थानों को आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित किया जाना चाहिए।
शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति 1968 ने शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 (एनईपी) शिक्षा पर सार्वजनिक निवेश को जीडीपी के 6 प्रतिशत तक बढ़ाने की सिफारिश की पुष्टि करती है। लेकिन शिक्षा पर खर्च भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 3.5 प्रतिशत से कम तक सीमित है। दुर्भाग्य से, वर्तमान में हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में योग्य शिक्षकों की कमी है। छात्र-शिक्षक अनुपात जो 5:1 होना चाहिए, वास्तव में 60:1 है। सरकार ने राज्यसभा को बताया कि भारत भर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में वर्तमान में 5,000 से अधिक शिक्षकों के पद रिक्त हैं। इस बीच पूरे देश में ऑनलाइन शिक्षा की चर्चा होने लगी और इसके इर्द-गिर्द व्यापक गतिविधियां शुरू हो गईं। एनईपी 2020 के प्रावधानों के अनुसार डिजिटल यूनिवर्सिटी बनाने की योजना बनाई है। विश्वविद्यालयों पर ऑनलाइन पाठ्यक्रम पेश करने का दबाव बनाया गया है। इसके बावजूद पर्याप्त शिक्षकों की नियुक्ति जरूरी है। औपचारिक शिक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा विश्वविद्यालयों की अकादमिक स्वायत्तता को लूटने की हालिया प्रवृत्ति है। औपचारिक शिक्षा के हाशिए पर जाने की चेतावनी नजर आ रही है। आइए, हम गंभीरता से सोचें और अपनी औपचारिक शिक्षा को बचाएं, अपनी विश्वविद्यालयों की शिक्षा को बचाएं।