‘गाइड’ हिन्दी की शायद पहली फिल्म थी जिसमें अवैध कहे जाने वाले संबंधों को स्त्री मानसिकता से परिभाषित करने की कोशिश की गई थी। आज भी ‘कांटों से खींच के ये आंचल….’ में रोजी के फहराते आंचल से नारी मुक्ति की जो अभिव्यक्ति मिलती है वह कथित बोल्ड कही जाने वाली शायद ही कोई फिल्म दुहरा सकी। एक फिल्मकार के रूप में देव आनंद को अमर बनाने के लिए ‘गाइड’ का ही स्मरण काफी है।
1945 में बाबू राव पइ के ऑफिस में देव आनंद के कदम रखने के साथ ही हिन्दी सिनेमा के इस लीजेन्ड के जीवन की शुरुआत होती है। पइ अपनी अगली फिल्म में उन्हें मुख्य भूमिका सौंपते हैं। सफलता एक संघर्षशील कलाकार के भीतर छिपे स्वप्नदृष्टा फिल्मकार को हवा देती है और 1949 में भाई चेतन आनंद के साथ वे ‘नवकेतन फिल्म’ की नींव डालते हैं। यह संयोग नहीं कि नवकेतन की पहली फिल्म ‘अफसर’ गोगोल के प्रसिद्ध व्यंग्य उपन्यास ‘इंस्पेक्टर जनरल’ पर आधारित थी। वास्तव में फिल्म निर्माण देव आनंद के लिए अपनी कल्पनाशीलता, अपने स्वप्न को साकार करने सदृश्य था। देव आनंद ने बाद में स्वीकार भी किया, कि यह समय से आगे की फिल्म थी। नवकेतन की दूसरी फिल्म की योजना बनी तो उन्हें ‘प्रभात स्टूडियो’ के जमाने के मित्र गुरुदत्त से किए गए वादे की याद आई। बलराज साहनी ने क्राइम थ्रिलर ‘बाजी’ की पटकथा लिखी और देव साहब ने अपने मित्र गुरुदत्त को इसके निर्देशन का भार सौंपा। ‘टैक्सी ड्राइवर’ की अपार सफलता ने नवकेतन को ही ताकत नहीं दी, बल्कि देव आनंद की जुल्फें, उनकी हंसी, उनकी अदाओं और वस्त्रविन्यास को भी युवाओं के बीच अनुकरणीय बना दिया। हिन्दी सिनेमा में सहृदय एंटी हीरो की शुरुआत भी यही मानी जाती है।
देव आनंद समय से आगे की फिल्मों के लिए जाने जाते रहे। आज जब सिनेमा के केन्द्र में खबरें दिखती हैं तो वर्षों पहले देव आनंद का कहा याद आता है, ‘मैं हमेशा किसी समकालीन विचार से प्रभावित होता हूं – किसी न्यूज हेडलाइन से, किसी घटना से। मैं अपनी कहानी वहीं से बनाता हूं।’ देव आनंद के लिए महत्त्वपूर्ण यह नहीं था कि उनकी फिल्में हिट हो रही हैं या फ्लाप, बल्कि उनके बेचैन कलाकार मन को तो कलात्मक हस्तक्षेप ही संतुष्टि देता था। इसी हस्तक्षेप की कोशिश 1975 में इमरजेंसी के दौर में भी उन्होंने की थी, जब फिल्म इण्डस्ट्री का प्रतिनिधित्व करते हुए बकायदा एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया था। अपने अंतिम दिनों तक सिनेमा को लेकर देव आनंद किसी नवोदित की तरह उत्साहित रहे, सिर्फ कथ्य को लेकर नहीं, तकनीक को लेकर भी। हिंदी सिनेमा और समाज की समझ देव साहब की फिल्मों के बिना पूरी नहीं हो सकती।