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सवाल यह है कि देश में आज जब हर छोटी-बड़ी चीज के आंकड़े मौजूद हैं तो नौकरियों के आंकड़े जुटाने में सरकार को परेशानी क्या है?

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Sunil Sharma

Jul 04, 2018

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अपनी नाकामियों को छिपाना कोई हमारे राजनेताओं से सीखे। जो वादे पूरे नहीं कर पाएंगे, उन्हें भी विनम्रता से स्वीकारने की बजाए कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं। ठीक वैसे ही जैसे बेरोजगारी के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बचाव का रास्ता निकाला है। एक पत्रिका में दिए साक्षात्कार में मोदी ने कहा कि नौकरियों की कमी से अधिक मुद्दा नौकरियों के आंकड़ों की कमी का होना है। यानी मोदी मानते हैं कि देश में रोजगार सृजित हो रहे हैं लेकिन सरकारों के पास उसके आंकड़े नहीं है।

सवाल यह है कि देश में आज जब हर चीज के आंकड़े मौजूद हैं तो नौकरियों के आंकड़े जुटाने में परेशानी क्या है? इसी साल रेलवे में ९० हजार नौकरियों के लिए दो करोड़ ८० लाख अभ्यार्थियों ने फार्म भरे थे। यानी एक सीट के लिए तीन सौ आवेदन। हर भर्ती का हाल यही है। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के एक पद के लिए तीन-चार सौ फार्म आना मामूली बात है। ये हालत रोजगार के अवसरों की कमी की तरफ साफ इशारा करते हैं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री को लगता है कि बेरोजगारी के मुद्दे पर विपक्ष उन्हें बेवजह घेरता है।

यहां सवाल विपक्ष का नहीं बल्कि देश के करोड़ों युवाओं का है। चुनाव से पहले अपनी सभाओं में नरेन्द्र मोदी ने पांच साल में १० करोड़ रोजगार उपलब्ध कराने का वादा किया था। सरकार को इस बात का हिसाब देना चाहिए कि उसने चार साल में कितने युवाओं को रोजगार मुहैया कराया और आने वाले एक साल में कितने और रोजगार मुहैया कराएगी? आंकड़े उपलब्ध नहीं होने की बात कहकर प्रधानमंत्री को देश को भ्रमित नहीं करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने देश की जनता को पारदर्शी सरकार देने का भी भरोसा दिलाया था। पारदर्शी सरकार का मतलब यही होता है कि जो किया उसका हिसाब जनता को देना चाहिए।

ये राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं बल्कि विश्वसनीयता का सवाल है। जहां उपयुक्त लगे वहां आंकड़े देकर वाहवाही लूट लेना और जहां विफलता हाथ लगे वहां आंकड़ों की कमी का बहाना बनाकर टाल देना जन भावनाओं के साथ खिलवाड़ ही माना जाएगा। युवा इस देश का भविष्य हैं और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करना सरकार की पहली प्राथमिकता होनी ही चाहिए। क्योंकि आम आदमी सरकार को चुनता ही इसलिए है ताकि उसने जिन आकांक्षाओं को लेकर अपना वोट दिया है, वह पूरी हों। सरकार के हर अच्छे-बुरे का हिसाब-किताब मिलेगा इतनी उम्मीद तो उसे रहती ही है। सही मायने में सच्चा लोकतंत्र भी तब ही कहा जाएगा जब सरकारें चुनाव से पहले जो वादे करती हैं, उन्हें पूरा करने की दिशा में काम करती नजर आएं।