
आखिर क्यों स्वीकार्य हो रैगिंग का कोई भी स्वरूप
नवनीत शर्मा
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापनरत
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बकौल गुरुदेव टैगोर, ‘मुझे याद नहीं कि क्या पढ़ाया गया यह याद है कि मैंने क्या सीखा।’ विद्यार्थी क्या सीख रहे हैं? वे क्या सीख रहे हैं कक्षाओं में, विश्वविद्यालय परिसर में, छात्रावास में, पुस्तकालय में, कैंटीन में? जो भी सीख रहे हैं वह बहुत भयावह है, भयावह इसलिए कि जादवपुर विश्वविद्यालय जो एनआइआरएफ रैंकिंग और नैक ग्रेडिंग के अनुरूप उच्च पायदान पर है वहां एक 17 वर्षीय विद्यार्थी स्वप्नदीप रैगिंग के चलते अपनी जान गंवा चुका है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार रैगिंग प्रतिबंधित है पर ‘मेलजोल’ और ‘परिचय’ की आड़ में प्रत्येक संस्था में व्याप्त है।
बंगाल को तुलनात्मक रूप से प्रगतिशील माना जाता रहा है और अधिकतर समाज सुधार आंदोलनों और विचारकों की जन्मभूमि रहा है। बंगाल के समाज में नवजागरण भारतीय पटल पर अग्रणी रहा है। औपनिवेशिक भारत में भी पहला आधुनिक शिक्षा संस्थान बंगाल में ही खुला। शिक्षा से अपेक्षित है कि वह हमें सभ्य और सामाजिक प्राणी बनाए। शिक्षा की शुरुआती परिभाषाओं में यह माना गया कि हम मनुष्य पैदाइशी रूप से जानवर, असभ्य और बर्बर होते हैं और शिक्षा हमें मनुष्य से मानवीय, सामाजिक, सभ्य और सहिष्णु बनाती है। स्वप्नदीप के मां-बाप शायद असभ्य और बर्बर जीवित पुत्र चाहते बरक्स इसके कि इसी सभ्य समाज का हिस्सा बनने को उसने बांग्ला साहित्य पढऩे के उद्देश्य से जादवपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और रैगिंग का शिकार होकर अपनी जान से हाथ धो बैठा।
रैगिंग के इस पूरे प्रकरण की गहन जांच जारी है कि छात्रावास में क्या-क्या हुआ था? वहां उपस्थित अन्य विद्यार्थियों ने प्रतिरोध क्यों नहीं किया? वह मूकदर्शक क्यों बने रहे? क्यों किसी नए या वरिष्ठ विद्यार्थी ने रैगिंग करने वालों के मुखर विरोध का साहस नहीं किया? वार्डन व अन्य अधिकारीगण भी अपनी तात्कालिक अनुपस्थिति से जवाबदेही का पल्ला नहीं झाड़ सकते। सवाल उठता है कि इन सब पर इरादतन या गैर इरादतन हत्या की धाराओं के अंतर्गत जांच क्यों नहीं की जानी चाहिए?
इस प्रकरण ने कुछ पुराने सवालों को शिक्षा विमर्श में एक बार फिर से रेखांकित किया है। क्यों वरिष्ठ विद्यार्थी या कोई भी विद्यार्थी यह नहीं सीख पाते कि विश्वविद्यालय प्रांगण में केवल विचारों का ही टकराव हो सकता है, अन्य किसी आधार पर नहीं? क्यों विद्यार्थी भाषा, लैंगिकता, धर्म, जाति और अन्य वैविध्य कारकों के प्रति सजग और सहिष्णु नहीं हो पा रहे? क्यों वे कारकों की भिन्नता के मुकाबले एकरूपता को बेहतर समझते हैं? क्यों छात्रों को लगता है कि रैगिंग की प्रक्रिया छात्रों को परिपक्व और मानसिक रूप से मजबूत बनाती है? संभव है कि समझ पर पर्दा शायद उस मनो-सामाजिक दशा के कारण पड़ा हुआ है जिसमें हिंसा को बहादुरी और शौर्य का पर्याय माना जाता है।
कुछ संवेदनशील व चर्चित सिनेमा, जैसे ३ इडियट्स (2009) और मुन्नाभाई एमबीबीएस (2003) रैगिंग को सामान्य-सहज प्रस्तुत करते हैं, तो कुछ सिनेमा जैसे गुलाल (2009), हॉस्टल (2011), छिछोरे (2019) रैगिंग को महिमामंडित करते हैं। कई वेब सीरीज और विज्ञापन मर्द और मर्दानगी की उसी अवधारणा का पोषण करते हैं जिसके चलते यह हिंसक और शोचनीय प्रकरण हुआ है। इन्हीं अवधारणाओं के चलते सामान्य विद्यार्थी ‘हल्की-फुल्की’ रैगिंग को स्वस्थ परंपरा मानते हैं।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 44.5% मेडिकल के विद्यार्थी, 39.9% इंजीनियरिंग के विद्यार्थी और 25.2% अन्य संस्थाओं के विद्यार्थी हल्की-फुल्की रैगिंग में कोई हानि नहीं देखते हैं। यह दावा है इस प्रतिवेदन का कि 40% विद्यार्थी कम से कम एक बार रैगिंग के अनुभव से गुजरते हैं। यह भी एक दीगर सवाल है कि रैगिंग विज्ञान विषयक संस्थाओं में क्यों अधिक व्याप्त है जिन्हें अपेक्षाकृत तार्किक व समतामूलक माना जाता है? विश्वविद्यालयों में दलित छात्रों द्वारा आत्महत्या भी अक्सर पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि से इतर रैगिंग और एडजस्टमेंट का मामला भी रहा है। यूजीसी द्वारा जारी दिशा निर्देश के अनुरूप रैगिंग की प्रत्येक शिकायत पर संस्थान के लिए प्राथमिकी दर्ज करवाना अनिवार्य है पर आंकड़े ऐसी कोई भी उत्साहवर्धक छवि नहीं प्रस्तुत करते हैं, बल्कि कई अध्यापक भी ‘हल्की-फुल्की’ रैगिंग को स्वस्थ आनंद की संज्ञा देते हैं।
टैगोर का मानना था कि हर देश की शिक्षा व्यवस्था का जुड़ाव लोगों के जीवन से होता है। इसी ‘जुड़ाव’ ने हमारे विश्वविद्यालयों को हिंसा व रैगिंग को सहज मानना सिखा दिया है। हमने इस जुड़ाव से उस नई पीढ़ी को निराश किया है जो कुछ बनने-करने का सपना लेकर विश्वविद्यालय में आती है। दरअसल, हम स्वप्नदीप के अपराधी हैं, क्योंकि हमारे स्कूल और विश्वविद्यालय वैसे ही हैं जिनके खिलाफ टैगोर ने एक सदी पहले मुक्तिगामी दर्शन रचा था।
Published on:
30 Aug 2023 09:55 pm
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