
हमारी विरासत : स्वार्णिम अतीत को ‘राज’ से आस
पाली/नाडोल। पत्थर बेजुबान होते हैं, लेकिन सदियों बाद भी बोलते हैं। अपने समय की संस्कृति व इतिहास आपके सामने लाकर रख देते हैं। मारवाड़-गोडवाड़ के नवीन तथ्यों पर प्रकाश डालने वाले सदियों पुराने महत्वपूर्ण शिलालेखों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। इन शिलालेखों पर उत्कीर्ण वृतांत समसामयिक होने के फ लस्वरूप प्रमाणिक व सत्यता पर आधारित माना जाता है।
मारवाड़-गोडवाड़ के नाडोल, नारलाई, देसूरी आदि क्षेत्र में शिलालेखों का समृद् भंडार पड़ा है। क्षेत्र में करीब एक हजार व 15 सौ वर्ष पुराने अप्रकाशित शिलालेख वर्तमान में दुर्दशा के शिकार हैं। गांव में प्रस्तर, ठिकानों के पट्टा, दीवारों, मंदिर और खेतों के बीच खड़ी हुई शिलालेखों, पुरानी छतरियां, बावडिय़ां व जलाशयों पर उत्कीर्ण वर्णन किए मिलते हैं जो हमारे इतिहास और राष्ट्र की बहुत बड़ी विरासत है। पुरातात्विक दृष्टि से मारवाड़ गोड़वाड़ का क्षेत्र बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहां की धरती में ना जाने कितने ही नगर और कितने ही काल खंडों के सभ्यताएं दबी पड़ी हैं। क्षेत्र में कई स्थानों से आदिमानव कालीन सभ्यता के प्रमाण मिले हैं और पुरातत्व विभाग द्वारा इनकी पुष्टि भी की हुई है।
उपेक्षा के शिकार शिलालेख
क्षेत्र के नाडोल, नारलाई, देसूरी क्षेत्र में कई शिलालेख बिखरे पड़े हैं। जो मारवाड़ गोडवाड़ के इतिहास पर नई रोशनी डाल सकते हैं। क्षेत्र में अधिकांश शिलालेख गोडवाड़ के विभिन्न इतिहासकारों, शोधकर्ताओं, लेखकों की दृष्टि से अछूते व अप्रकाशित है।
शोध की जरूरत
पिछले कई वर्षों से राज्य के किसी भी विश्वविद्यालय में पीएचडी कर रहे शोधकर्ताओं द्वारा प्राचीन शिलालेखों पर शोध नहीं किया गया है। इस कारण इन शिलालेखों के ऐतिहासिक गौरव की कहानियां अधूरी पड़ी हैं।
प्राचीन शिकारगाह हो रही अनदेखी की शिकार
देसूरी। तहसील क्षेत्र में रियासत काल में बनी शिकारगाहें व कई ऐतिहासिक धरोहर रखरखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील हो रही हैं।
रियासतकाल में बनी शिकारगाह आज भी देसूरी की गोचर भूमि के पास पत्थर की चट्टान पर घाणेराव के बाघों का बाघ, वेणा तालाब, धौलादाता कुम्भलगढ की तलहटी स्थित कोठार वड़ा इत्यादि क्षेत्र में मौजूद हैं। जिन्हें निहारने के लिए देशी विदेशी पर्यटक आज भी यहां पहुंचते हैं। इनका उपयोग रियासतकाल में राजा महाराजाओं के साथ अंग्रेज जंगली जानवरों का शिकार करने के लिए उपयोग करते थे। आजादी के बाद सरकार, प्रशासन, पर्यटन व पुरातत्व विभाग में से किसी ने भी इनकी सुध नहीं ली। इससे आज यह शिकारगाह खण्डहरों में तब्दील हो रही हैं। वीरान जंगलों में इन शिकारगाहों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। यही रही तो ये ऐतिहासिक धरोहर इतिहास के पन्नो में ही रह जाएगी।
Published on:
19 Feb 2021 11:23 am
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