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कभी बाघ की दहाड़ से गूंजता था यहां का जंगल

-शिकारियों ने लुप्त कर दिए बाघ, आजादी के काफी सालों बाद चेती सरकार-अब सरकार व वन विभाग की महज पैंथर पर टिकी रहती है नजर

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पाली

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Suresh Hemnani

Nov 06, 2018

Desuri-Ghanerao Forest

कभी बाघ की दहाड़ से गूंजता था यहां का जंगल

महेन्द्र गहलोत
देसूरी (पाली)। आज भले ही सवाईमाधोपुर से सटे रणथभोर अभयारण्य व अलवर जिले में आबाद सरिस्का अभयारण्य को बाघों के कारण जाना जाता हो। लेकिन, एक दौर ऐसा भी था जब पाली जिले के देसूरी क्षेत्र में भी बाघ बहुतायत में हुआ करते थे। इसका बाकायदा इतिहास तक में जिक्र हैं। इतना ही नहीं, यहां बनी हुई शिकारगाहें भी इसकी पुष्टि करती है। हालांकि, आजादी के बाद सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। ऐसे में बाघ सिर्फ इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह गए हैं। वर्तमान में सरकार के साथ ही वन विभाग का ध्यान महज पैंथर पर ही टिका हुआ है।

जानकारों की मानें तो देसूरी, घाणेराव, सादड़ी व नारलाई के जंगल का क्षेत्र रियासत काल में राजा-महाराजाओं का आखेट स्थल रहा है। इस इलाके में जोधपुर व उदयपुर रियासतों की निजी शिकारगाह हुआ करती थी, जिन्हें गोडवाड़ी भाषा में ओदियां कहा जाता था। ये वो दौर था जब इनके शिकार पर प्रतिबंध नहीं था। रियासतकाल के राजा व अन्य ठिकानों के सरदार अपने मनोरंजन के साथ ही ताकत बताने के लिए बाघों का शिकार करते थे। जब देश आजाद हुआ, तब भी बाघ काफी संख्या में थे।

लेकिन, ऐसे लोगों पर पाबंदी नहीं होने से आजादी के बाद देसूरी व कु भलगढ़ वन्य जीव अ ायारण्य के आस-पास के क्षेत्र में बाघ कब लुप्त हो गए, यह कोई आज तक नहीं जान पाया। 1960 तक तो बाघ की गतिविधियां अभयारण्य में सभी जगह सामान्य थी, लेकिन इसके बाद ये लुप्त से हो गए। वन्य जीवों से समृद्ध इस क्षेत्र को राज्य सरकार ने 43 साल पहले कुंभलगढ़ वन्यजीव अभयारण्य घोषित नहीं किया होता तो आज यहां दिखाई देने वाले वन्यजीव कहानियों में ही सुनने को मिलते।

बाघों का बाग में आज भी है अवशेष
देसूरी के चारागाह क्षेत्र में दो, सेलीनाल क्षेत्र में एक तथा घाणेराव के मुछाला महावीर क्षेत्र में रियासत काल से मशहूर बाघों का बाग है, जो अतीत के सुनहरे पन्नों को समेटे हुए हैं। यहां आज भी खण्डहरनुमा आोट स्थल (ओदियां) विद्यमान हैं। इनमें से कुछ तो अभयारण्य व चारागाह क्षेत्र में बनी हुई है। वहीं नारलाई का कायलाना क्षेत्र तो प्रसिद्ध शिकार स्थली रहा है। आज यहां घोडाधड़ बांध है। इससे घिरी पहाडियों पर एक ओदी आखेट स्थल साफ दृष्टि गोचर होती है। बताते हैं कि उस समय यहां पर बाघों की भरमार थी। रियासत काल में इनका शिकार राजा महाराजा अपनी ताकत बताने व मनोरंजन के लिए किया करते थे। आजादी के बाद भी शिकार के शौकीन लोगों ने आजादी का इतना दुरुपयोग किया कि बाघ सहित कई प्रकार के वन्य जीवों का शिकार कर इनकी नस्ल तक ही मिटा दी।

नौहत्था नार, हर कोई रहता था भयभीत
यहां पर नौहत्था नार भी हुआ करते थे। जिनकी लम्बाई नौ हाथ हुआ करती थी। उसके सिर का आकार जलेबी के आकार में हुआ करता था। कहते हैं कि उसका शिकार करना कठिन था। राजा महाराज भी जंगल में इस प्रकार के वन्य जीवों से वाकिफ थे। वे भील समाज के लोगों को शिकार के समय साथ रखते थे।

रात में सुनते थे आवाज
आजादी के पहले व बाद भी इस क्षेत्र में बाघ सहित कई जंगली जीव थे। लेकिन, रियासतकाल में इनका शिकार होता रहा। रात के समय तो गांव की चारदीवारी से बाहत तक नहीं जाने देते थे। रात में बाघों की आवाज सुनाई पड़ती थी। - सरेमल सोमपुरा, शिल्पकार