
VIDEO : इतिहास के सुनहरे पन्नों में शुमार है मूसल गेर, भैरव का रचते हैं शृंगार
-मुकेश जैसानी
पाली/सादड़ी। जिले के सादड़ी कस्बे की रियासतकालीन 160-70 साल पुरानी, प्रदेश व जोधपुर प्रान्त की ख्यातनाम कला मूसल (हामैळा) गेर पर्याप्त संरक्षण व न्यून सामाजिक झुकाव के चलते इतिहास के पन्नो में सिमट रही है। 300 परिवारों की सहभागिता से शुरू गेर वर्तमान में 18-28 परिवारों तक सिमट गई है। इसका प्रमुख कारण इन परिवारों के आजीविका संसाधनों की कमी, रोजगार की तलाश में पलायन, पूर्व रियासती अनुदान बन्द एवं सरकारी संरक्षण का पूर्णत: अभाव होना है। गेर की महत्ता को देखते इसके संरक्षण को लेकर ठोस प्रयास आवश्यक हैं।
ताम्बावती नगरी नाडोल रियासत से करीब एस सौ साठ-सत्तर साल पहले सादडी क्षेत्र में आए करीब तीन सौ सगरवंशी माली समाज परिवार ने अपने इष्ट देव भैरव व माता आशापुरा की प्रसन्नता व विश्व कल्याण कामना में मूसल गेर की नींव रखी। सगरवंशी माली समाज (वर्तमान में ओढ़ माली) के लोग अपने अद्र्धनग्न शरीर पर तेल, सिन्दूर, कालारंग व मालीपन्ने लगा व मदिरापान कर भैरव समरूप स्वांगधर कर हाथ में मूसल ले ढोल, ताशे व मृदंग की थाप पर झूमते नाचते हुए नगर के प्रमुख मार्गों से गेर निकालते हैं। इसे देखने को पालिका क्षेत्र सहित निकटवर्ती ग्राम से जनसमुदाय उमड़ पड़ता है। गेर के दौरान भैरव रूपी शृंगारित लोग अपने मित्रों के साथ होली के मजाकिया अंदाज में हरकत करते हैं। महिलाएं भी हाथों में डण्ड़े लेकर औरतों के पीछे भागती हैं। इनका उद्देश्य ईष्टदेव की प्रसन्नता के साथ लोगों का मनोरंजन करना है।
गेर के इतिहास व ओढ़ माली समाज के लोगों के मतानुसार नाडोल रियासत में इस समाज के पांच हजार परिवार निवास करते थे। इसी दौरान वहां के राजा ने इनके कुछ परिवारों को घोड़े तो कुछ परिवारों को हाथी दान किए। तब इन परिवारों में आपसी टकराहट हुई। वहां से बिखराव हो गया। वही से करीब 300 परिवारों ने नाईवाड़ा चौक स्थित मालियों के वास में आकर डेरा डाला। जहां उन्होंने एक थान (मंदिर) बनाया। रतनपुरी गोस्वामी को धर्मगुरु मानते हुए उन्हें पूजा-अर्चना का जिम्मा सौंपा।
मात्र 18 परिवार की सहभागिता
समय अन्तराल, आजीविका संसाधन का अभाव, पूर्व रियासती अनुदान का बन्द, भीषण अकाल व सरकारी संरक्षण का अभाव से इस गेर के अस्तित्व पर संकट के बादल मण्डरा रहे हैं। कई परिवार रोजगार की तलाश में देश प्रदेश पलायन कर गए। वर्तमान में इस गेर के संचालन में करीब 18 परिवारों की सहभागिता रह गई है। यह परिवार भी पर्याप्त सरकारी संरक्षण अभाव के चलते इस गेर का संचालन करने में कतराते हैं। चार पांच दशक पूर्व जोधपुर रियासत से मिलने वाला अनुदान भी बन्द हो गया है।
एक रात में कुआं खोदने पर मिली ओढ़ माली की पहचान
सगरवंशी नवयुवक मण्डल अध्यक्ष मांगीलाल संगरवंशी, ओगडराम, रमेश, मांगीलाल खापर, पोकरराम, बाबूलाल, दिनेश कुमार, पुखराज, भगवतीलाल, पप्पूराम, मांगीलाल, चुन्नीलाल, आनन्द कुमार, राजूराम बताते हैं कि भीषण अकाल व पानी की मारामारी में हमारे पूर्वजों ने कस्बे के नाईवाड़ा चौक स्थित सुथारों वास में एक रात में एक कुआं खोद डाला। सुबह जब जाग हुई तो लोगों ने कुएं के बारे में पूछा। उन्होने गोडवाड़ी भाषा में कहा कि तुम ओढ़ तो नहीं हों कि एक ही रात में इतना गहरा कुआं खोद डाला। ओढ़ शब्द का गोडवाड़ी भाषा में अर्थ आडू व अनाड़ीवृत्ति रूप में माना जाता है।
गेर से ही जीवन्त रह गए हैं घरों में मूसल
पहले जहां लोग अपने घरों में ओली व मूसल बनवाकर लगाते थे। जिनमें बाजरे मक्का सहित विभिन्न धान को कूटकर खीचड़ा बनाते थे। कुछ दशक पूर्व हुई विज्ञान क्रान्ति व बढ़ते इलेक्ट्रानिक संसाधनों ने जहां मूसल के अस्तित्व पर खतरा हो गया वहीं कस्बे में इस ऐतिहासिक गेर की बदौलत ही आज भी हर घर में मूसल के अस्तित्व को बनाए रखा है।
Updated on:
20 Mar 2021 09:36 am
Published on:
20 Mar 2021 09:29 am
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