भोजपुरी के ‘कबीर’ को नहीं मिला पूरा न्याय
खूब ताने सुने, लेकिन हार नहीं मानी
18 दिसंबर 1887 को वर्तमान सारण जिले के कुतुबपुर में भिखारी ठाकुर का जन्म हुआ था। हजामत बनाने का पुस्तैनी काम था। भिखारी ठाकुर भी जीवनयापन के लिए पुस्तैनी काम में लग गए। गांव के नाई या ठाकुर को अनेक काम होते थे, हर किसी के यहां न्योता देने जाना, संदेशा लेकर जाना, संदेशा लेकर आना और सबकी हजामत बनाने का काम तो था ही। एक तो कमाई भी पूरी नहीं होती थी और कार्य से संतोष नहीं होता था। ऐसे में भिखारी पहले फतनपुर और फिर खडग़पुर चले गए। वहां जाकर लोगों की हजामत बनाने लगे। मन नहीं माना। उनके अंदर का कलाकार जागा, तो फिर अपने गांव आ गए। रामलीला का प्रदर्शन शुरू किया और उसके बाद सृजनात्मक नाटकों का प्रदर्शन करने लगे। विशेष नाच शैली विकसित की, जिसे अब बिदेसिया शैली के रूप में जाना जाता है।
लोक संगीत-कला में भी किया सुधार
अनेक प्रचलित गीतों को भिखारी ठाकुर ने बदला। अश्लील अंदाज को सभ्य बनाया। गीतों और नृत्य को मर्यादित किया। कहानी और उसके प्रदर्शन को मर्यादित किया। अपनी नाच नाटिकाओं को उन्होंने ऐसा रूप दिया कि जिसे हर उम्र के लोग देख सकते थे। उनके करीब १२ नाटक हैं, जिनमें कहीं भी फूहड़ता का पुट नहीं मिलता। फूहड़ता न तो गीत-संगीत में है और न भाव-भंगिमा में। वे भी पुतरिया या तवायफों का नचाने के विरुद्ध थे। उन्होंने लडक़ों में ही अच्छे नर्तक तैयार किए। नर्तकों को नचनिया कहा जाता था, लेकिन भिखारी ने पहली बार नचनिया पेशे को भी सम्मानित बना दिया। उनकी नाटिकाओं में इतनी गहराई और मर्म की बात होती थी कि बड़े-बड़े लोग उनका नाच देखने आते थे, उनकी मंडली को निमंत्रित करते थे। वे पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन शास्त्र की उन्हें अच्छी जानकारी थी।
बहुत जातिवाद झेला, योगदान को कम आंका गया
भिखारी ठाकुर के नाटक हमेशा सामाजिक कुरीतियों पर हमला करते थे, जिसके कारण उन्हें हमले झेलने पड़ते थे। उन्होंने हमेशा जातिवादी हमले को झेला। बेझिझक अपने गीतों में खुद को भिखारी नाई बोलते रहे। बार-बार दोहराते रहे। भिखारी की आलोचना दलित चिंतकों या विचारकों ने की है। भिखारी ठाकुर को ब्राह्मणवादी मूल्यों का पोषक बताकर किनारे करने की कोशिश होती रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भिखारी ठाकुर की अच्छाइयों से बिहार का एक बड़ा समाज मुंह मोड़ चुका है। हम बोल सकते हैं कि वे राजनीति के शिकार हुए हैं।
नाच की हो गई मौत
बिहार में उस खांटी नाच शैली की मौत हो चुकी है, जिसके लिए भिखारी को पहचाना जाता है। सभ्य नाच या बिदेसिया शैली के आविष्कारक भिखारी ठाकुर ही थे। स्त्रियों के वेष में लडक़ों या पुरुषों के नाचने की परंपरा लौंडा नाच भी अब स्वतंत्र रूप से खत्म हो चुका है। सारण जिले के आसपास नाचने वाले लौंडे कुछ पुराने किस्म की देहाती बेंड पार्टियों में ही बचे हैं। अब जो बिदेसिया की प्रस्तुति होती है, उसमें असली नायिकाएं अभिनय करती हैं, लौंडों के लिए यहां भी भूमिका खत्म हो चुकी है। कुछ अच्छे नाटककार ही विदेसिया पेश करते हैं।