
खालिदा के शासन में हिंदुओं पर अत्याचार हुआ था
Khaleda Zia Death: खालिदा जिया ने बांग्लादेश की दो बार प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। पहली बार 1991 से 1996 तक और दूसरी बार 2001 से 2006 तक। उनके शासनकाल को बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति में महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में, विशेष रूप से भारत के साथ, यह अवधि कटुता और अविश्वास की छाया में गुजरी।
खालिदा जिया की नीतियां और निर्णय अक्सर पाकिस्तान-समर्थक और भारत-विरोधी माने जाते थे, जिसने दोनों देशों के बीच सहयोग को बाधित किया। उनके प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान, हिंदुओं पर हमले होते रहे और टाटा समूह के प्रस्तावित निवेश को रोका गया। ये दोनों मुद्दे न केवल बांग्लादेश की आंतरिक चुनौतियों को दर्शाते हैं, बल्कि भारत-बांग्लादेश संबंधों में उत्पन्न तनाव के प्रमुख कारण भी बने।
सबसे पहले, हिंदू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का मुद्दा। बांग्लादेश में हिंदू समुदाय की आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 8-10 प्रतिशत है, और ऐतिहासिक रूप से यह समुदाय विभिन्न राजनीतिक उथल-पुथल का शिकार रहा है। खालिदा जिया के 2001 में सत्ता में आने के बाद, स्थिति विशेष रूप से गंभीर हो गई। 2001 के आम चुनावों में बीएनपी और उसके सहयोगी जमात-ए-इस्लामी की जीत के तुरंत बाद, देशभर में हिंदू समुदाय पर संगठित हमले शुरू हो गए।
इन हमलों में हजारों हिंदू परिवारों को निशाना बनाया गया, उनकी संपत्तियां लूटी गईं, मंदिरों को तोड़ा गया और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया। एक अनुमान के मुताबिक, कम से कम 30,000 से अधिक हिंदू प्रभावित हुए, और कई को देश छोड़कर भारत भागना पड़ा। ये हमले मुख्य रूप से बीएनपी और जमात के कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए, जो चुनावी जीत को 'इस्लामी विजय' के रूप में प्रचारित कर रहे थे।
खालिदा जिया की सरकार ने इन हमलों को रोकने या दोषियों को दंडित करने में स्पष्ट रूप से विफलता दिखाई। हालांकि सरकार ने कुछ जांच समितियां गठित कीं, लेकिन व्यावहारिक कार्रवाई नगण्य रही। अंतरराष्ट्रीय संगठनों जैसे ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इन घटनाओं की निंदा की, और इन्हें 'संगठित सांप्रदायिक हिंसा' करार दिया।
उदाहरण के लिए, 2001 में बारिसाल, खुलना और ढाका जैसे क्षेत्रों में हिंदू गांवों पर हमले हुए, जहां संपत्ति जब्ती और जबरन धर्मांतरण की घटनाएं आम थीं। खालिदा जिया की सरकार का रुख यह था कि ये 'छिटपुट घटनाएं' हैं, लेकिन वास्तव में, जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी सहयोगियों को खुश रखने के लिए कोई सख्त कदम नहीं उठाया गया। यह विफलता न केवल बांग्लादेश की आंतरिक एकता को प्रभावित करती थी, बल्कि भारत के साथ संबंधों को भी कटु बनाती थी।
भारत, जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं, ने इन हमलों को गंभीरता से लिया और बांग्लादेश से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की मांग की। भारतीय मीडिया और राजनीतिक हलकों में इसे 'हिंदू उत्पीड़न' के रूप में चित्रित किया गया, जिसने दोनों देशों के बीच अविश्वास को बढ़ाया। खालिदा जिया की भारत-विरोधी छवि पहले से ही मजबूत थी, क्योंकि उन्होंने चुनाव प्रचार में भारत को 'दुश्मन' के रूप में पेश किया था। ऐसे बयानों ने हिंदू सुरक्षा के मुद्दे को और जटिल बना दिया, क्योंकि भारत ने इसे सीमा पार शरणार्थी समस्या के रूप में देखा। परिणामस्वरूप, 2001-2006 के दौरान दोनों देशों के बीच राजनयिक वार्ताएं सीमित रहीं, और भारत ने बांग्लादेश को 'अल्पसंख्यक सुरक्षा' पर दबाव डाला, जो खालिदा सरकार द्वारा नजरअंदाज किया गया।
दूसरा प्रमुख बिंदु टाटा समूह के प्रस्तावित निवेश का रहा। 2004-2005 में, भारतीय औद्योगिक दिग्गज टाटा ग्रुप ने बांग्लादेश में लगभग 3 अरब डॉलर के निवेश का प्रस्ताव रखा। इस योजना में स्टील प्लांट, उर्वरक कारखाना और बिजली उत्पादन इकाइयां शामिल थीं, जो बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा अवसर था। यह निवेश न केवल हजारों रोजगार पैदा करता, बल्कि बांग्लादेश की ऊर्जा और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करता। टाटा ने प्राकृतिक गैस की सस्ती आपूर्ति की मांग की, जो बांग्लादेश के पास उपलब्ध थी।
हालांकि, खालिदा जिया की सरकार ने इस प्रस्ताव पर लगातार देरी की और अंततः इसे अस्वीकार कर दिया। मुख्य कारण राजनीतिक थे: बीएनपी सरकार भारत से किसी खालिदा सरकार करने से हिचकिचाती थी, क्योंकि यह उनकी 'राष्ट्रवादी' छवि को प्रभावित कर सकता था। इसके अलावा, जमात-ए-इस्लामी जैसे सहयोगी भारतीय कंपनियों को 'विदेशी हस्तक्षेप' मानते थे।
टाटा ने 2006 तक कई दौर की वार्ताएं कीं, लेकिन सरकार की ओर से गैस मूल्य और अन्य शर्तों पर असहमति बनी रही। अंत में, 2008 में टाटा ने योजना त्याग दी, और बांग्लादेश ने पाकिस्तानी दावूद ग्रुप जैसे अन्य निवेशकों को आमंत्रित किया। यह निर्णय बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक साबित हुआ, क्योंकि निवेश की कमी से विकास दर प्रभावित हुई।
खालिदा जिया की 2006 में भारत यात्रा के दौरान भी इस मुद्दे पर कोई प्रगति नहीं हुई, हालांकि ट्रेड डील पर चर्चा हुई। भारतीय पक्ष ने इसे 'अवसर की बर्बादी' माना, क्योंकि टाटा का निवेश दोनों देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा दे सकता था। इसके बजाय, खालिदा सरकार की प्राथमिकता सऊदी अरब और पाकिस्तान जैसे देशों से संबंध मजबूत करना था। इसने भारत-बांग्लादेश संबंधों में कटुता बढ़ाई, क्योंकि भारत ने इसे 'भारत-विरोधी नीति' के रूप में देखा। परिणामस्वरूप, सीमा विवाद, जल बंटवारे और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर सहयोग कम हुआ। उदाहरण के लिए, खालिदा शासन में उल्फा जैसे भारतीय विद्रोही समूहों को बांग्लादेश में शरण मिली, जो संबंधों को और खराब करता था।
ये दोनों बिंदु खालिदा जिया के शासनकाल की भारत-विरोधी नीतियों के प्रतिबिंब हैं। हिंदू हमलों ने सांस्कृतिक और मानवीय स्तर पर तनाव पैदा किया, जबकि टाटा मुद्दे ने आर्थिक अवसरों को बाधित किया। कुल मिलाकर, उनके कार्यकाल में भारत-बांग्लादेश संबंध न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए, जो बाद में शेख हसीना के शासन में सुधरे। हालांकि, खालिदा जिया की राजनीतिक विरासत बांग्लादेश में मजबूत रही, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में यह एक चेतावनी है कि कैसे आंतरिक राजनीति द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित कर सकती है। अब जब हम उनकी मृत्यु के बाद पीछे मुड़कर देखते हैं, तो ये मुद्दे हमें याद दिलाते हैं कि सुरक्षा और आर्थिक सहयोग ही मजबूत संबंधों की कुंजी हैं।
Updated on:
30 Dec 2025 06:20 pm
Published on:
30 Dec 2025 06:13 pm
बड़ी खबरें
View AllPatrika Special News
ट्रेंडिंग
