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10 साल पूरे… बैतूल से लंदन तक ‘बेटी के नाम घर की पहचान’, एक सकारात्मक पहल की कहानी

MP News: अनिल नारायण यादव ने बेटा-बेटी के बीच भेदभाव की गहरी खाई को खत्म करने के लिए अपनी बेटी के जन्म दिन पर शुरू किया 'बेटी के नाम घर की पहचान' अभियान। 8 नवंबर 2015 को शुरु हुए इस अभियान को 10 साल पूरे हो गए हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराधों की ऊंची दर वाले मध्य प्रदेश में यह पहल एक उम्मीद की किरण है। जानिए मध्यप्रदेश में बेटियों के सम्मान की एक सकारात्मक पहल की कहानी...।

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Beti ke nam ghar ki pahchan

MP News 'बेटी के नाम घर की पहचान' (फोटो सोर्स : पत्रिका)

MP News: घर के बाहर बेटी के नाम की एक नेम प्लेट लगाने से क्या बदल जाएगा…? क्या समाज में उनके खिलाफ हो रहे अपराध एक पल में खत्म हो जाएंगे? या फिर उन्हें उनके वो सारे अधिकार मिल जाएंगे जिनकी वो अधिकार हैं ? या फिर बेटियों को बोझ समझने वाली सोच का हमेशा के लिए अंत हो जाएगा..? ऐसे ही न जाने अनगिनत सवाल खड़े किए गए जब मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के एक शख्स ने बेटियों के पहचान के लिए कुछ करने की ठानी। जिले के अनिल नारायण यादव ने बेटा-बेटी के बीच भेदभाव की गहरी खाई को खत्म करने के लिए अपनी बेटी के जन्म दिन पर शुरू किया बेटी के नाम घर की पहचान। 8 नवंबर 2015 को शुरु हुए इस अभियान को 10 साल पूरे हो गए हैं।

चुनौतियों के बीच एक सराहनीय प्रयास

मध्य प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की दर ऊंची बनी हुई है, जहां राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, महिलाएं अक्सर परिचितों से ही हिंसा का शिकार होती हैं। ऐसे में, बैतूल जिले से शुरू हुई बेटी के नाम घर की पहचान जैसी पहल समाज में बदलाव की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो रही हैं। यह अभियान बेटा-बेटी के बीच भेदभाव को कम करने और बेटियों को उनके हकदार सम्मान दिलाने पर केंद्रित है, जो प्रदेश की चुनौतियों के बीच एक सराहनीय प्रयास के रूप में उभरा है।

बेटी से घर की पहचान

अभियान की शुरुआता 8 नवंबर 2015 को बैतूल में अनिल नारायण यादव द्वारा अपनी बेटी आयुषी के जन्मदिन पर की गई। इसका मुख्य विचार घर के बाहर बेटी के नाम की नेम प्लेट लगाना है, जिससे घर की पहचान बेटी से जुड़ती है। इससे न सिर्फ बेटियों को बोझ समझने वाली सोच पर सवाल उठता है, बल्कि उनके अधिकारों, शिक्षा और सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित होता है। अभियान 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' जैसे राष्ट्रीय प्रयासों से जुड़कर डिजिटल इंडिया और स्वच्छ भारत के संदेशों को भी नेम प्लेट्स के माध्यम से फैलाता है। साथ ही, बेटियों का गृह प्रवेश धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें बैंड-बाजे और पुष्प वर्षा जैसे उत्सव शामिल होते हैं, जो परिवारों में सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा अभियान

दस साल बीत गए, और यह अभियान बैतूल की सीमाओं से निकलकर 28 राज्यों में फैल चुका है। लंदन की सड़कों पर, दुबई के चमचमाते घरों में, शिकागो की गलियों में बेटियों के नाम चमक रहे हैं। 3,600 से ज्यादा घरों में नेम प्लेट्स लगीं, 130 गांव और 25 जिले इससे जुड़े। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह लहर बेटियों को उनकी जगह दिला रही है। इससे समाज में बेटियों के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा है। वे अब परिवार की पहचान बन रही हैं, जिससे उनके खिलाफ होने वाले अपराधों और भेदभाव की जड़ों पर असर पड़ता है। परिवारों में बेटियों का जन्म और जन्मदिन उत्सव की तरह मनाया जाने लगा है, जो सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देता है।

यह पहल एक उम्मीद की किरण

महिलाओं के खिलाफ अपराधों की ऊंची दर वाले मध्य प्रदेश में यह पहल एक उम्मीद की किरण है। यह दर्शाता है कि छोटे-छोटे कदम, जैसे नेम प्लेट लगाना, समाज की सोच को बदल सकते हैं और बेटीयों को उनके अधिकार दिलाने में मदद कर सकते हैं। ऐसे प्रयासों से न सिर्फ अपराधों पर लगाम लग सकता है, बल्कि एक समान और सुरक्षित समाज की नींव मजबूत हो सकती है।

बेटी के नाम घर की पहचान अभियान कोई आंदोलन नहीं, यह बताता है कि बेटियों को बचाने के लिए बड़े-बड़े कानूनों से ज्यादा जरूरी है उन्हें दिल से अपनाना, नाम से पुकारना, और गर्व से बताना। दस साल पहले बैतूल में जो बीज बोया गया था वह आज विश्व भर में पेड़ बन चुका है जिसकी हर टहनियों पर कोई न कोई बेटी मुस्कुरा रही है।