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वैज्ञानिकों को चकमा दे रहे MP Wildlife के चतुर शिकारी, Wolf State में फेल हुई रेडियो कॉलर तकनीक!

Wolf Radio Collar Project MP: भारतीय भेड़ियों या ग्रे वुल्फ को लेकर फरवरी 2024 में मध्य प्रदेश में शुरू किया गया रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट एक साल बाद भी अधूरा… सवाल सामने है कि क्या इस प्रोजेक्ट के अधूरा रहने से टाइगर और भेड़ियों के सह-अस्तित्व पर किया जाने वाला अध्ययन प्रभावित हुआ है? अगर इस प्रोजेक्ट में सफलता नहीं मिली, तो वन विभाग का अगला कदम क्या होगा? पढ़ें संजना कुमार कि विशेष रिपोर्ट…

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Has the Nauradehi Wildlife Sanctuary Wolf Radio Collar Project failed?

Has the Nauradehi Wildlife Sanctuary Wolf Radio Collar Project failed?

Wolf Radio Collar Project MP: एमपी के नौरादेही वाइल्डलाइफ सेंचुरी (Nauradehi Wildlife Sanctuary) के जंगलों में एक दिलचस्प जंग चल रही है, ये जंग वैज्ञानिकों बनाम भेड़ियों की है… और हैरान कर देने वाली बात ये कि इस जंग में हार वैज्ञानिकों की हो रही है। एक साल के लंबे समय बाद भी रेडियो टेलीमेट्री के लिए भेड़ियो का रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट शुरू ही नहीं हो सका है।

वाइल्ड लाइफ के इतिहास में ऐसा पहली बार है जब वैज्ञानिक अपने परम्परागत रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट में नाकामी का सामना कर रहे हैं। भारतीय भेड़ियों यानी ग्रे वुल्फ को लेकर फरवरी 2024 में मध्य प्रदेश में शुरू किया गया रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट एक साल और कुछ महीनों बाद भी अधूरा है… सवाल सामने है कि क्या इस प्रोजेक्ट के अधूरा रहने से टाइगर और भेड़ियों के सह अस्तित्व पर किया जाने वाला अध्ययन प्रभावित हुआ है? अगर इस प्रोजेक्ट में सफलता नहीं मिली, तो वन विभाग का अगला कदम क्या होगा?

फरवरी 2024 में अस्तित्व में आया वुल्फ रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट

वुल्फ स्टेट एमपी के वैज्ञानिक हैरानी में हैं कि एक साल से ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन उनका भेड़ियों को रेडियो कॉलर पहनाने का प्रोजेक्ट अब तक शुरू ही नहीं हो सका। नौरादेही के जंगलों में टाइगर के री-इंट्रोडक्शन (2018) के बाद इनके सहअस्तित्व पर शोध शुरू न हो पाना प्रोजेक्ट से जुड़े एक्सपर्ट्स को बेचैन कर रहा है। रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट में जुटे वैज्ञानिकों ने भेड़ियों के विचरण करने वाले स्थानों पर पिंजरे रखे हैं, इन पिंजरों में उनका पसंदीदा मांस भी रखा जा रहा है, ताकि भेड़िये जाल में फंसें और उन्हें रेडियो कॉलर पहनाया जा सके। लेकिन भेड़िये की सतर्कता का आलम ये है कि वे आते हैं पिंजरों से अपना खाना ले जाते हैं और वैज्ञानिकों की उम्मीदों को तगड़ा झटका दे जाते हैं।

तीन भेड़ियों को पहनाया जाना था रेडियो कॉलर

शुरुआत में नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य में भेड़ियों की पारिस्थितिकी का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने के लिए रेडियो कॉलर तीन भेड़ियों को पहनाया जाना था।

ये तीनों तीन अलग-अलग झुंड का प्रतिनिधित्व करने वाले लीडर भेड़िए थे। लेकिन ये लीडर भेड़िये इतने सतर्क हो सकते हैं या फिर कोई और वजह है कि वैज्ञानिक अब तक इन्हें रेडियो कॉलर पहनाने में असफल रहे हैं।

2025 में पूरा होना था शोध


रेडियो टेलीमेट्री आधारित भेड़ियों पर किए जाने वाला अध्ययन फरवरी 2024 में शुरू होना था और इसे 2025 तक पूरा किया जाना था। ये शोध एमपी राज्य वन अनुसंधान संस्थान (SFRI) जबलपुर द्वारा शुरू किए गए रेडियो टेलीमेट्री प्रोजेक्ट का हिस्सा था और विशेष रूप से भेड़ियों की पारिस्थितिकी पर बड़े सह-शिकारी-बाघों (जिन्हें 2018 में नौरादेही में री-इंट्रोडक्शन) के प्रभाव का अध्ययन करने पर केंद्रित था। लेकिन पूरा होना तो दूर ये अभी तक शुरू भी नहीं हो सका।

रेडियो कॉलर तकनीक केवल एक प्रेक्टिस नहीं बल्कि भविष्य की बुनियाद

ऐसे में रेडियो कॉलर प्रोजेक्ट वैज्ञानिकों के लिए केवल एक तकनीकी अभ्यास नहीं था, बल्कि वह भविष्य के सह-अस्तित्व और संरक्षण मॉडल की बुनियाद था। किसी भी जानवर पर बेहतर शोध का एक मात्र और परम्परागत तरीका मानी जाने वाली रेडियो टेलिमेट्री तकनीक (रेडियो कॉलर के माध्यम से किए जाने वाले अध्ययन की तकनीक) भारतीय ग्रे वुल्फ के मामलों में फेल होती नजर आ रही है।

गांव और जंगलों के बीच फंसी रिसर्च


नौरादेही वाइल्डलाइफ सेंचुरी के आसपास बसे 72 गांव हैं। यहां लोगों के मन में इन भेड़ियों को लेकर तरह-तरह के भ्रम और डर को आसानी से भांपा जा सकता है। वहीं इको टूरिज्म के बढ़ते प्रभाव के बीच स्थानीय लोग खुद को इस रिसर्च से कटा हुआ महसूस करते हैं। लोगों का कहना है कि, सिर्फ कॉलर पहनाकर जानवरों की आदतें समझना बड़ी भूल है। पहले हमें समझों। यदि वैज्ञानिकों को भेड़ियों की सही जानकारी जुटानी है तो फिर उन्हें ग्रामीणों को भी इस अध्ययन में शामिल करना होगा।

अकेला वन विभाग नहीं प्रोजेक्ट के पीछे कई प्रमुख संस्थान

नौरादेही के इस वुल्फ रेडियो कॉलर प्रोजेक्ट के पीछे अकेला वन विभाग नहीं बल्कि कई प्रमुख संस्थान इससे जुड़े हैं। ये सभी मिलकर इनके संरक्षण और अनुसंधान के कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।

1- मध्य प्रदेश वन विभाग

इस प्रोजेक्ट का संचालन और निगरानी का सारा जिम्मा मध्य प्रदेश वन विभाग का है। सागर सर्किल के अधीन आने वाली नौरादेही वाइल्ड लाइफ सेंचुरी इस विभाग के प्रबंधन क्षेत्र में आती है।

2.- वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया

वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (WII) देश की प्रमुख वाइल्डलाइफ रिसर्च संस्था है। WII के वैज्ञानिकों ने रेडियो कॉलरिंग की तकनीकी रणनीति, ट्रैकिंग डिवाइस की सेटिंग और डेटा विश्लेषण की रूपरेखा तैयार की है। टाइगर रीइंट्रोडक्शन प्रोजेक्ट में भी WII की अहम भूमिका रही है।

3.- नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी(NTCA)


टाइगर रीइंट्रोडक्शन से जुड़ी योजनाओं की निगरानी और फंडिंग में NTCA शामिल रही है। भले ही ये प्रोजेक्ट वुल्फ पर ही केंद्रित है, लेकिन टाइगर के साथ उनके सह-अस्तित्व का मूल्यांकन NTCA के दायरे में आता है।

4.- स्थानीय प्रशासन और ग्राम पंचायतें

भेड़ियों के मूवमेंट की जानकारी के लिए स्थानीय लोगों, चरवाहों और गांव वालों की भागीदारी भी जरूर है। वन विभाग ने ग्रामीणों को जागरूक करने और रिपोर्टिंग सिस्टम बनाने मे स्थानीय पंचायतों की मदद भी ली गई है।

5.- सैटेलाइट डिवीजन और GIS विशेषज्ञ

कॉलर आईडी से आने वाले डेटा को प्रोसेस करने के लिए GIS और सैटेलाइट ट्रैकिंग एक्सपर्ट्स भी टीम का हिस्सा हैं। जो जानवरों के मूवमेंट की मैपिंग भी करते हैं।

वुल्फ रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट पर बात को टालते रहे अधिकारी

एमपी के नौरादेही वाइल्डलाइफ सेंचुरी में वुल्फ रेडियो कॉलर ट्रैकिंग प्रोजेक्ट पर जब जिम्मेदार अधिकारियों से बात की गई, तो वे इस पर किसी भी तरह की जानकारी देने से बचते नजर आए। पत्रिका.कॉम ने 23 जुलाई बुधवार को जब प्रोजेक्ट इंचार्ज से बात की तो उनका दो टूक जवाब था कि, Sorry मैं इस बारे में कोई जानकारी नहीं दे सकता। उन्होंने कहा कि डीएफओ की परमिशन लेकर ही कोई जानकारी दे सकते हैं।

पत्रिका.कॉम ने 24 जुलाई गुरुवार को डीएफओ को कॉल किया तो उन्होंने प्रोजेक्ट की सारी जिम्मेदारी संभाल रहे प्रोजेक्ट इंचार्ज से ही जानकारी लेने को कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया।

डीएफओ सर से बात करें, उनकी परमिशन के बिना कोई जानकारी नहीं दी जाएगी

इस प्रोजेक्ट को लेकर किसी भी तरह की बात करने के लिए हमें डीएफओ सर ने मना किया है। उनकी परमिशन के बिना कोई भी जानकारी नहीं दी जाएगी। आप उनसे बात कर लीजिए। हम इसके अलावा भी तो भेड़ियों पर प्रोजेक्ट कर रहे हैं। हमने कैमरा टेप किए हैं, उनसे उनके खाने-पीने और अन्य चीजों पर नजर रख रहे हैं। वहीं प्रोजेक्ट के बजट से लेकर अन्य किसी भी तरह की जानकारी देने से बचते रहे।

-डॉ. अनिरुद्ध मजूमदार, वैज्ञानिक तथा परियोजना अन्वेषक, (वुल्फ प्रोजेक्ट इंचार्ज) जबलपुर।

इस प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी प्रोजेक्ट इंचार्ज देंगे

वुल्फ प्रोजेक्ट के प्रोजेक्ट इंचार्ज (PI) जबलपुर, अनिरुद्ध मजूमदार हैं। वही वुल्फ रेडियो कॉलर प्रोजेक्ट के बारे में पूरी जानकारी दे सकते हैं। बजट से लेकर हर तरह की जानकारी उनसे मिल जाएगी आपको।

-अब्दुल अलीम अंसारी, डीएफओ, नौरादेही वाइल्डलाफ सेंचुरी।

अगर वाकई फेल हुई है तकनीक तो अब सवाल ये


अब सवाल ये है कि अगर रेडियो टेलीमेट्री तकनीक फेल होती है, तो क्या ये सही वक्त होगा कि रेडियो कॉलर पहनाकर रेडियो टेलीमेट्री की पारम्परिक तकनीक को भूलकर नई तकनीकों की दिशा में सोचा जाए? ड्रोन टेक्नीक से लेकर AI आधारित मूवमेंट मॉडल पर काम किया जाए? नौरादेही की ये कहानी सिर्फ एक रेडियो कॉलर की नाकामी का मुद्दा भर नहीं रहा, बल्कि, तकनीक, प्रकृति और इंसानी सोच के टकराव की एक मिसाल बन गया है! अब देखना ये होगा कि क्या अगली कोशिश में विज्ञान शिकारी भेड़ियों की चतुराई को मात दे पाता है या नहीं!