
नई दिल्ली। आज बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें नमन करते हुए भारतीय संविधान का शिल्पी बताया है। ये बात सच भी है। आधुनिक भारत पर जब भी चर्चा होती है तो बाबा साहेब चर्चा के केंद्र में खुद ब खुद आ जाते हैंं। चर्चा के दौरान उनकी जीवन यात्रा कई रूपों में उभरकर हमारे सामने आती है। लोकतंत्र के बारे में वह कहा करते थे कि यह केवल एक शासन पद्धति भर न होकर सामूहिकता का साझा एहसास भी है।
संपन्न और वंचितों के भेद को मिटाना होगा
बाबा साहेब की नजर में लोकतंत्र सिर्फ एक शासन पद्धति नहीं है। यह सामूहिकता का साझा एहसास है। वो कहा करते थे कि लोकतंत्र में एक ही समाज के कुछ लोग विशेषाधिकार से संपन्न हों और बाकी लोग अधिकारों से वंचित हों, ऐसा नहीं हो सकता। इस बात को उनकी जाति विरोधी मुहिम, संविधान सभा में उनकी भूमिका, स्त्री मुक्ति को लेकर उनके प्रयासों या हिंदू धर्म त्यागने के उनके फैसले के आलोक में समझा जा सकता है।
कैसे आएगा जातियों में बंटे लोगों में बंधुत्व?
यही कारण है कि बाबासाहेब आधुनिक भारतीय चिंतकों में सबसे अधिक प्रासंगिक चिंतक माने जाते हैं। उनके विचारों के केंद्र में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व हैं। उनके ये विचार फ्रांस की क्रांति से आए हैं, जो आधुनिक लोकतंत्र के केंद्रीय विचार हैं। बाबासाहेब की राय में समानता और स्वतंत्रता लाने में तो एक हद तक कानून प्रभावी हो सकते हैं, पर सामाजिक रूप से हजारों जातियों में बंटे लोगों में बंधुत्व कैसे आ पायेगा?
आखिरी भाषण में बंधुत्व पर दिया सबसे ज्यादा जोर
बाबासाहेब एक मजबूत राष्ट्र निर्माण के लिए बंधुत्व को सबसे ज्यादा प्रभावी तत्व मानते थे। उन्होंने संविधान सभा के आखिरी भाषण में इस पर सबसे ज्यादा जोर दिया था। साथ ही बंधुत्व जैसे व्यापक विषय को प्रभारी तरीके से संविधान सभा के सामने रखा था। वो राष्ट्र को एक आध्यात्मिक विचार मानते हैं। वह मानते थे कि राष्ट्र एक सामाजिक एहसास है। यह एकता की ऐसी उदात्त भावना है, जिससे प्रेरित होने वाले तमाम लोग एक दूसरे को भाई यानी अपना मानते हैं। यही भाव भारतीय लोकतंत्र को मजबूती दे सकता है।
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Updated on:
14 Apr 2019 11:42 am
Published on:
14 Apr 2019 09:40 am
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