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प्रतापगढ़

Rajasthan News : गंभीर बीमारी से जूझ रही 4 साल की मासूम, अब 7 साल की बड़ी बहन देगी नया जीवन

Rajasthan News : प्रतापगढ़ ज़िले में स्थित छोटीसादड़ी की 7 साल की तनवी साहू अपनी छोटी बहन चार वर्षीय थैलेसीमिया से ग्रसित परिधि को बोन मैरो देगी। जिससे उसका थैलेसीमिया से बीमारी का उपचार हो सकेगा। उपचार के लिए सामाजिक संस्था प्रतिनिधियों के साथ परिवार दिल्ली के सर्वोदय अस्पताल में पहुंचा।

प्रतापगढ़Apr 17, 2024 / 03:03 pm

Kirti Verma

Human Angle Story : प्रतापगढ़ ज़िले में स्थित छोटीसादड़ी की 7 साल की तनवी साहू अपनी छोटी बहन चार वर्षीय थैलेसीमिया से ग्रसित परिधि को बोन मैरो देगी। जिससे उसका थैलेसीमिया से बीमारी का उपचार हो सकेगा। उपचार के लिए सामाजिक संस्था प्रतिनिधियों के साथ परिवार दिल्ली के सर्वोदय अस्पताल में पहुंचा। जहां डॉ. दिनेश पेंडाकर ने उपचार शुरू किया है। यह उपचार तीन माह तक चलेगा। उपचार में लगभग 15 लाख रुपए से अधिक की राशि का खर्च होता है। ऐसे में नीमच की थैलेसीमिया वेलफेयर सोसाइटी बीएमटी डॉ. पेंडाकर के माध्यम से निशुल्क करवा रही है। उपचार के बाद उम्मीद जताई जा रही है कि तनवी उसका सामान्य जीवन जी सकेंगी। वह भी अन्य बच्चों की तरह खेल सकेगी और उसके माता-पिता जो उपचार के लिए अस्पतालों में चक्कर लगा रहे हैं, वह भी अपनी बेटी के बचपन को उसके साथ जी पाएंगे।

बोन मैरो ट्रांसप्लांट से उपचार पर हर एक के बस की बात नहीं

थैलेसीमिया जैसी गंभीर बीमारी में बोन मैरो प्रत्यारोपण एक कारगर उपचार पद्धति है। थैलेसीमिया रोगियों के उपचार और रोग की रोकथाम की दिशा में कार्यरत नीमच की थैलेसीमिया वेलफेयर सोसाइटी अध्यक्ष सतेंद्रसिंह राठौड़ का कहना है कि बोन मैरो प्रत्यारोपण पद्धति से इस रोग के उपचार में मदद मिलती है। 90 से 98 प्रतिशत रोगियों का उपचार इस पद्धति से मुमकिन है। इसके लिए ब्लड ग्रुप मैच होने के बाद बोन मैरो मैच किया जाता है। मैच होने के बाद एक विशेष पद्धति से बोन मैरो उत्सर्जन कर प्रत्यारोपित किया जाता है। तनवी को कुछ वर्षों से हर 10 दिन में एक यूनिट ब्लड चढ़ाया जा रहा है। यहां से परिवार व संस्था के साथ नई दिल्ली रवाना हुए। इस दौरान परिवार के सदस्यों के साथ अध्यक्ष सतेंद्र राठौड़, आलोक अग्रवाल, अशोक सोनी, प्रदीप व्यास मौजूद रहे।
थैलेसीमिया एक ऐसी बीमारी है, जिसमें पीड़ित मरीज के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया प्रभावित होती है। उसके बाद मरीज में धीरे-धीरे रक्त की कमी हो जाती है। ऐसे मरीज को बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। अमूमन जन्म के 3 से 4 महीने बाद इस बीमारी का पता लगता है। सही समय पर इस बीमारी का पता लगने पर मरीज के जीवन को बचाया जा सकता है। जीवित रहने के लिए भी मरीज को बार-बार अस्पताल में खून चढ़वाने और सामान्य बीमारियों की स्थिति में भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में मरीज और उनके परिजनों को यह बीमारी केवल शारीरिक और मानसिक रूप से भी तोड़ देती है।

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