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अनूठी है छत्तीसगढ़ की यह परंपरा, लक्ष्मी के बाद पूजते हैं गौरा-गौरी

छत्तीसगढ़ की पहचान गोड़, बैगा आदिवासी जनजातियों से होती है। क्षेत्रीय सांस्कृतिक मानव जीवन की नैसर्गिक सुखों की यह एक जीती-जागती परम्परा है जो आज भी प्रदेश में बड़े उत्साह एवं श्रध्दा से मनाते आ रहे हैं

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Chandu Nirmalkar

Oct 30, 2016

gaura gauri festival in chhattisgarh

gaura gauri festival in chhattisgarh

चंदू निर्मलकर/रायपुर.
कहते हैं भारत की आत्मा गांवों में बसती है। तभी तो छत्तीसगढ़ में दिवाली के दूसरे दिन गांवों की चमक दोगुनी बढ़ जाती है। जी हां हम देश के सबसे बड़े त्योहार दीपावली पर्व पर छत्तीसगढ़ में मनाई जाने वाली गौरा-गौरी विवाह, गोवर्धन पूजा और राउत जनजाति की प्रमुख मातर के बारे में बताएंगे। गांव में सुख-समृद्धी के साथ फसलों की अच्छी पैदावार के लिए यह त्योहार हर ग्रामीणों के लिए सबसे खास होता है।



छत्तीसगढ़ की पहचान गोड़, बैगा आदिवासी जनजातियों से होती है। क्षेत्रीय सांस्कृतिक मानव जीवन की नैसर्गिक सुखों की यह एक जीती-जागती परम्परा है जो आज भी प्रदेश में बड़े उत्साह एवं श्रध्दा से मनाते आ रहे हैं। जिसकी शुरूआत धनतेरस की रात से धनवंतरी की पूजा कर होती है। इस दिन गोड़ आदिवासी लोग दिनभर खरीदारी के बाद रात में धनतेरस के दिए जलाकर पूरे विधि-विधान से ग्रामीणों के साथ गौरा-गौरा (शिव-पार्वती) जगार करते हैं। इस जगार में महिलाएं एक स्वर में गीत-गाते है, और पुरुष वर्ग ढोलक डमऊ, दफड़ा, गुदूम जैसे वाद्ययंत्रों के साथ नृत्य कर पूरे इलाके में भक्ति का संचार करते हैं। यह छत्तीसगढ़ धरती की पुरानी परम्परा एवं लोक संस्कृति का जीवंत उदाहरण है।





दीपावली की रात को लक्ष्मी पूजा के बाद गौरा-गौरी की मूर्ति बनाई जाती है। इसे कुंवारी लड़कियां सिर पर कलश सहित रखकर मोहल्ले-गांव का भ्रमण करती हैं। टोकरीनुमा कलश में दूध में उबाले गए चावल के आटा से बना प्रसाद रखा जाता है। जिसे दूधफरा कहा जाता है। इसमें घी-तेल का उपयोग नहीं किया जाता है। यही पकवान गौरा-गौरी को भोग लगाया जाता है। जिसे दूसरे दिन सभी लोग ग्रहण करते हैं। सबसे खास बात यह है कि गौरा-गौरी को पूर्ण रूप से तैयार करने व शादी की पूरी रस्में इसी रात में पूरी की जाती है। यह छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासी जनजातियों गोड़ जाति के लिए सबसे प्रमुख है।



छत्तीसगढ़ी समाज की कई परंपरा आज भी प्रचलन में है। बताते चले कि पहले यम द्वितीया के दिन चावल के आटा से दीया बनाकर जलाया जाता था। उस जलते हुए दीए के बाती को पुरुष निगल जाते हैं। यह हैरतंगेज करतब केवल गांवों में ही देखने को मिलता है। मान्यता है कि ऐसा करने से व्यक्ति दीघार्य होता है।





माना जाता है कि भगवान कृष्ण का इंद्र के मान मर्दन के पीछे उद्देश्य था कि ब्रजवासी गौ.धन एवं पर्यावरण के महत्व को समझें और उनकी रक्षा करें। आज भी हमारे जीवन में गायों का विशेष महत्व है। आज भी गायों के द्वारा दिया जाने वाला दूध हमारे जीवन में बेहद अहम स्थान रखता है। मान्यता है कि गोवर्धन पूजा के दिन यदि कोई दुखी है, तो पूरे वर्ष भर दुखी रहेगा इसलिए मनुष्य को इस दिन प्रसन्न होकर इस उत्सव को सम्पूर्ण भाव से मनाना चाहिए।



दिवाली के तीसरे दिन ग्रामीण अंचलों में दिन में मातर व शाम को मड़ई की धूम रहती है। इस दिन राउत जनजाति के लोग मैदान में गायों की झुंड के बीच हैरतंगेज करतब दिखते हैं। और शाम को मड़ई का अयोजन करते हैं। मान्यता है कि मड़ई का आयोजन करने से गांव में बुरी आत्माओं का प्रवेश नहीं होता है।

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