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सोशल मीडिया दौर में भी किताबों का क्रेज, विनोद शुक्ल की रॉयल्टी बनी मिसाल

Vinod Kumar Shukla: ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता विनोद शुक्ल को उनकी पुस्तक ‘दीवार में खिड़की रहती थी’ की 87 हजार से ज्यादा प्रतियां बिकने पर 30 लाख रुपए की रॉयल्टी मिली।

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Vinod Kumar Shukla (Photo source- Patrika)

Vinod Kumar Shukla (Photo source- Patrika)

Vinod Kumar Shukla: आज सोशल मीडिया के जमाने में जहां सबकुछ फटाफट देख लेने और पढ़ लेने की आदत बन गई है। ऐसा माना जाता है कि इसी का असर है कि आज की पीढ़ी पुस्तकों से दूर हो रही है। GEN-Z- तो मोबाइल और अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों से ही दुनिया देखेगी और जानेगी। ऐसे में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित विनोद शुक्ल को उनकी पुस्तक के लिए 30 लाख रुपए की मिली रॉयल्टी इस बात की आशा लेकर आई है कि पुस्तक पढऩे वाले आज भी बढ़ रहे हैं।

Vinod Kumar Shukla: 30 लाख रुपए का प्रतीकात्मक चेक

ऐसा नहीं है कि हिंदी साहित्य पढ़ा या खरीदा नहीं जा रहा। देश में इस तरह की धारणा बनाई जा रही है, लेकिन शुक्ल जी को मिली रॉयल्टी इस पर विराम लगाने के लिए काफी है। शनिवार को दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम इस बात का साक्षी बना कि विनोद कुमार शुक्ल की किताबें खूब पढ़ी जा रही हैं।

हिंदी युग्म उत्सव कार्यक्रम के दौरान आंकड़े जारी कर बताया गया कि अप्रैल से अब तक शुक्ल की लिखी अकेले ’दीवार में खिड़की रहती थी’ की ही 87 हजार से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। इसी के लिए शुक्ल को हिंदी युग्म की तरफ से छह महीने की रॉयल्टी लगभग 30 लाख रुपए का प्रतीकात्मक चेक सौंपा गया। यह राशि उनके खाते में पहले ही भेज दी थी।

मिल चुका है ज्ञानपीठ पुरस्कार

साहित्य में अमूल्य योगदान के लिए विनोद कुमार शुक्ल को 59वां ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया है। छत्तीसगढ़ से वह पहले साहित्यकार हैं जिन्हें यह सम्मानित पुरस्कार प्रदान किया गया है। उन्होंने न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि देश को अनेक प्रतिष्ठित साहित्यों की कृतियों से परिचित कराया है।

रॉयल्टी महज एक आंकड़ा नहीं…

Vinod Kumar Shukla: शैलेश भारतवासी, संस्थापक हिंदी युग्म: कभी यह भी कहा जाता था कि हिंदी की किताबें बिकती तो हैं, लेकिन लेखक को रॉयल्टी नहीं मिलती। मेरा मानना है कि यदि किताबें बिकती हैं तो कोई भी प्रकाशक चाहे वह कितना भी बेईमान क्यों न हो, लेखक को हिस्सा देने के लिए बाध्य होगा। क्योंकि बिक्री का प्रभाव सबसे पहले बाजार में दिखता है। शुक्लजी को दी गई रॉयल्टी महज एक आंकड़ा नहीं बल्कि एक प्रमाण है कि हिंदी की किताबें व्यापक पाठक वर्ग तक पहुंच सकती हैं और उनका उज्जवल भविष्य है।