
अब सावन में वह बात नहीं, सावन के झूलों का साथ नहीं
रायसेन@शिवलाल यादव की रिपोर्ट...
विंध्याचल क्षेत्र की जीवन शैली वैसे तो प्रकृति से सामंजस्य की अद्भुत जीवन शैली है। यहां का हर तीज-त्यौहार प्रकृति और लोक रंजन से जुड़ा है, लेकिन अब विंध्याचल क्षेत्र की इस जीवन परंपरा को लगता है अब ग्रहण लगने लगा है। सावन महीने की वह आदा ऊदल के संग्राम की किताबें और कई परंपराएं जो कभी लोगों के प्रकृति प्रेम को दर्शाती थीं। लेकिन वह अब सिर्फ किस्से कहानियों तक सिमट कर हो गई हैं।
दरअसल सावन के महीने में जब चारों तरफ धरती पेड़ पहाड़ पर्वतों पर हरियाली की चुनर फैल जाती थी। मयूर मोर का मन उल्लास से भरकर नाच उठता था। ऐसे में सभी का मन प्रफुल्लित हो जाता है। ऐसे में ही सावन महीने में घर-घर और बाग बगीचों में सावन के झूले डाले जाते हैं। जिन पर बालक बालिकाएं झूला ढूलती हुईं सावन के गाने गाती हैं। इसके अलावा महिलाएं भी सावन माह में विशेष मनमोहक श्रृंगार करती हैं। इसके अलावा गांवों में मेंहदी के पेड़ों से पत्तों की तुड़ाई कर उनके सिल बट्टे से बारीक पीसकर मेंहदी हाथ पैरों में रचाई जाती थी।
इस तरह सावन महीना पूरे उत्साह व जोश उल्लास से मनाया जाता है। लोक मान्यता भी थी की जिस कन्या के हाथों में मेंहदी जितनी रेचगी उसे उसका अच्छा सुंदर पति मिलेगा। पहले पहले गांवों में चकरा चकरी सहित गेंड़ी भौंरा, चपेटा लट्टू, कबड्डी, गिल्ली डंडा आदि खेल हुआ करते थे। वहीं कहीं-कहीं बांसुरी की सुरीली मनमोहक धुन भी सुनने को मिल जाया करती थी। लेकिन अब ना तो शहर गांवों में वह मेंहदी के पेड़ बचे हैं। अब तो बालक बालिका बाजार से रेडीमेड मेंहदी कोन खरीदकर काम चलाती हैं। वहीं अब पुराने खेलों की जगह बालक और युवाओं का मन मोबाइल पर ज्यादा बीतने लगा है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से खेलों से ही शारीरिक व मानसिक विकास संभव होता है।
पेड़ गायब, सावन के झूलों में आई कमी
शहर के बुजुर्ग कमल सिंह पटेल, गुलाब कुशवाहा, प्राणचंद कुशवाहा, नाके दार बाबूलाल कुशवाहा, महेश श्रीवास्तव आदि का कहना है कि यह बात सही है कि पहले सावन के महीने में विंध्याचल क्षेत्र में खेल खेले जाते थे। लेकिन आज के इस युग में बच्चे इन खेलों से दूर होते जा रहे हैं। हमारे बुजुर्गों ने कॉफी सोच समझ कर खेल बनाए थे। ताकि इन खेलों के माध्यम से बच्चों के शारीरिक व मानसिक रूप से विकास हो सके।
Published on:
08 Aug 2018 10:27 am
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