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अष्ट सात्विक भावों का उद्रेक ही संत की सबसे बड़ी पहचान

फतेह मैदान में आयोजित आध्यात्मिक प्रवचन में गोपिकेश्वरी देवी ने कहा-

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Ashta Satvik expressions are the biggest identity of saint

फतेह मैदान में आयोजित आध्यात्मिक प्रवचन में गोपिकेश्वरी देवी ने कहा-

राजनांदगांव / खैरागढ़. शहर के फतेह मैदान में जारी आध्यात्मिक प्रवचन देने पहुंची कृपालु महाराज की शिष्या गोपिकेश्वरी देवी ने प्रवचन श्रृंखला के ग्यारहवें दिन वास्तविक संत में होने वाली बातों के अलावा कर्म मार्ग पर व्याख्यान दिया। इसके आगे उन लक्षणों की चर्चा की गई जो वास्तविक संतों में होती हैं। सबसे पहला लक्षण बताया गया कि वास्तविक संत की वाणी का हमारे अंत:करण पर बहुत जोरदार प्रभाव पड़ता है। क्योंकि वह साक्षात् ईश्वर की वाणी होती है। ईश्वर ही तो संतों के समस्त कर्मों के कर्ता हैं। संतों के वचनों को बार बार सुनने की वेदों ने आज्ञा दी है क्योंकि क्या पता कब हमारे मन में उनकी बात पूर्ण रूप से लग जाए और हम उनके तथा भगवान केपूर्ण शरणागत हो जाएं। दूसरी पहचान है कि वास्तविक संत के सान्निध्य में जाने से संसार से वैराग्य और भगवान में अनुराग अपने आप होता है किंतु यह सबके अंत:करण की शुद्धि की मात्रा के अनुसार होता है। जिसका अंत:करण जितना अधिक शुद्ध होगा वह उतनी शीघ्रता से संत की ओर खींचेगा और जिसका अंत:करण जितना अधिक पापयुक्त होगा, वह संत पर उतनी अधिक अश्रद्धा करेगा, अपमान करेगा। तीसरी और सबसे बड़ी पहचान है वास्तविक संतों के शरीर में अष्ट सात्विक भावों का प्रगटीकरण। महापुरुष अपने प्रेम को सर्वथा गोपनीय रखते हैं क्योंकि प्रेम का नियम ही है गोपनीय रखना। लेकिन कभी कभी अत्यधिक भगवदीय वातावरण पाकर महापुरुष अपने प्रेम पर कंट्रोल नहीं कर पाता और वह अष्ट सात्विक भाव के रूप में उनके शरीर में प्रकट हो जाता है।

ये अष्ट सात्विक भाव हैं
प्रेमास्पद की याद में वृक्ष के समान स्थिर (जड़) हो जाना, पसीना निकलना, रोंगटे खड़े हो जाना, आवाज बदल जाना, शरीर काँपना, चेहरे का रँग बदल जाना, आँसू निकलना और मूर्चि्छत हो जाना। ये आठों भाव किसी महापुरुष में दिखें तो तत्काल उनकी शरणागति कर लेनी चाहिए। एक सिद्धान्त और ध्यान में रखना चाहिए कि यदि हमने गुरु बनाया है और वह नीचे क्लास का है और हम ऊँचे क्लास का प्रेम चाहते हैं, तो हम गुरु बदल सकते हैं किंतु बिना दुर्भावना किए। महापुरुष इससे नाराज नहीं होते, यह पाखंड ढोंगियों के यहां होता है जिसमें भय आदि दिखाया जाता है।

कर्म के वास्तविक तत्व का निरुपण
आज संसार में भगवान् को पाने के जो प्रमुख मार्ग दिखलाई पड़ते हैं उनमे 3 ही मुख्य हैं, कर्म, ज्ञान और भक्ति। वेदों और उपनिषदों में कर्म मार्ग की प्रशंसा और निंदा दोनों की गई है। कर्म मार्ग की निंदा इसलिए की गई है क्योंकि कर्म धर्म से ईश्वरप्राप्ति या आनंदप्राप्ति या जो दुखनिवृत्ति हम प्राप्त करना चाहते हैं वह नहीं हो सकता। कर्म धर्म के फल का निरुपण करते हुए शास्त्रों ने कहा है कि कर्म धर्म से स्वर्गप्राप्ति हो जायेगी और यश मिल जाएगा। और यह स्वर्ग कैसा है? स्वर्ग कभी भी किसी को सदा के लिए नहीं मिलता, जितने हमारे पुण्य कर्म होंगे, उसके फल को भोगने के लिए कुछ समय तक के लिए ही हमें स्वर्ग मिलता है। जैसे ही पुण्य की समाप्ति हुई तो फिर तत्काल उस जीव को स्वर्ग से नीचे गिरा दिया जाता है और तब उससे मानव देह भी छीन लिया जाता है। जिस कर्म धर्म का ऐसा फल होता है उसके लिए भी यह अनिवार्य है कि कर्म धर्म के वेदों में जो नियम कहे गए उसका शत प्रतिशत पालन हो। अगर प्वाइंट वन परसेन्ट भी त्रुटि हुई तो उसका उल्टा फल प्राप्त होता है । यज्ञ, व्रत, दान आदि सभी कर्मों के लिए कड़े कड़े नियम हैं जिनका कलियुग में पालन असंभव है।