रतलाम

रतलाम में जैन संत ने कोरोना वायरस को लेकर बोली बड़ी बात

कोरोना के तांडव में हर मानव को त्यागी बनकर अपनी धन-संपत्ति का सदुपयोग करना चाहिए। जीव बचेंगे, तो जगत बचेगा और जगत बचेगा तो जीवन बचेगा। ग्रहस्थ वर्ग यदि संपूर्ण परिग्रह का त्यागी नहीं बन सकता, तो परिग्रह की मूच्र्छा का त्याग करे।

रतलामApr 07, 2020 / 04:28 pm

Ashish Pathak

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रतलाम। कोरोना के तांडव में हर मानव को त्यागी बनकर अपनी धन-संपत्ति का सदुपयोग करना चाहिए। जीव बचेंगे, तो जगत बचेगा और जगत बचेगा तो जीवन बचेगा। ग्रहस्थ वर्ग यदि संपूर्ण परिग्रह का त्यागी नहीं बन सकता, तो परिग्रह की मूच्र्छा का त्याग करे।
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यह आव्हान सिलावटो का वास स्थित नवकार भवन में विराजित शांत क्रांति संघ के नायक,जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने किया है। धर्मानुरागियों को दिए संदेश में उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में हर व्यक्ति को परिग्रह के पीछे अंधी दौड न दौडकर अपनी पुण्यवानी बढाने का कार्य करना चाहिए। पुण्य की उपस्थिति में किया गया थोडा सा पुरूषार्थ भी व्यक्ति को मालामाल कर देता है। पुण्य और पुरूषार्थ की युगलबंदी से जुडकर जीवन और जगत की हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।
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आर्थिक असमानता का उपचार

उन्होंने कहा कि आर्थिक असमानता और अनावश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह समाज में अराजकता पैदा करता है। इससे एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य का शोषण करता है। इस आर्थिक असमानता का उपचार भी अपरिग्रह से होगा। पदार्थ की पकड और अर्थ की अकड को जो शिथिल कर लेता है, वह मानव ही महामानव बन सकता है।
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जितने भी भय है, वे परिग्रह के कारण

आचार्यश्री ने कहा कि आज सारा संसार महाभय की पकड में है। यह महाभय एक-दो दिनों में पैदा नहीं हुआ है। भगवान महावीर ने परिग्रह को महाभय का कारण कहा है,क्योंकि परिग्रह-लालसाओं के बढने के साथ ही असुरक्षा का ग्राफ भी उंचा चढ जाता है। इसलिए जितने भी भय है, वे परिग्रह के कारण ही है। परिग्रह ऐसा ग्रह है, जो अकेला गति नहीं करता, वह अपने साथ ईष्र्या, प्रतिस्पर्धा, क्रूरता, कठोरता, धोखा, मायाचारिता, लालसा जैसे कई ग्रहों को लेकर चलता है। इससे जीवन में संग्रह और संघर्ष दोनो समानांतर चलते है। परिग्रह आत्म विकास में प्रति बंधक है।
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शांति की अनुभुति हो सकती

आचार्यश्री ने कहा कि बांटने में शांति है और बटोरने में अशांति है। यदि सभी परिग्रही व्यक्ति अगर अपनी संग्रहीत वस्तुओं को बांटने लग जाए, तो उन्हें शांति की अनुभुति हो सकती है। अक्सर लोग परिग्रह बढाने में विश्वास रखते है और उसे सुरक्षा का लेबल दे देते है, जबकि वह कभी किसी की सुरक्षा नहीं करता। परिग्रह के रूप में जब मानस में कामनाओं की आग जल रही हो और आसक्ति का धुंआ भरा होता है, तो जीवन विपत्ति और संक्लेश से भरा ही रहता है। परिग्रही व्यक्ति इसी कारण अपनी संपूर्ण जिदंगी दर्द, दवा और दुख में व्यतीत करता है।
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आचार्यश्री ने यह भी कहा

-जो पदार्थों को जोडे और संभाले वो संसारी है और जो आत्मा को खोजे व संभाले वह संत है।
-बाहय परिग्रह के साथ आंतरिक संग्रह वृत्ति का त्याग करे, वह महान है।
-अधिकारों का संग्रह भी परिग्रह है। अधिकारों की जिदंगी स्थायी या शाश्वत नहीं होती।
-पकड अशांत करती है और पकड का त्याग शांति देता है। आज के कुर्सी युग में यह त्याग जरूरी बन गया है।
-आग में हाथ डालकर शीतलता चाहना जैसे बेकार है, वैसे ही परिग्रह के प्रपंच में रहकर अनासक्ति की ठंडक चाहना बेकार है।
-अनासक्ति पदार्थों के त्याग से प्राप्त होती है। त्याग में जो सुख है, वो राग में नहीं।
-रागी सारे सुखों को अपने अधीन करना चाहता है, जबकि त्यागी अपने सुखांे को बांटने में विश्वास रखता है।
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