
girl child
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक कैम्पन बहुत चर्चित रहा था। वह था ‘मेरी बेटी, मेरा अभिमान’, इस कैम्पेन के तहत माता-पिता ने अपनी बेटी के साथ सेल्फी खींची और खूब गर्व के साथ सोशल मीडिया पर शेयर की। यह लहर बहुत तेजी के साथ चली और लगा कि वाकई समाज में अब लड़कियां अभिमान बन गई हैं। लोग उनकी उपलब्धियों पर गौरवान्वित हो रहे हैं। देश की आधी आबादी जैसे केवल परिवार पालने या बच्चे पैदा करने से आगे बढ़ कर समाज को चलाने के दिशा में उल्लेखनीय रूप से आगे आ गई है और लगा कि बेटियों को समानता की स्थिति मिल गई है। दरअसल कुछ सालों में गर्भ में जांच और कन्या भ्रूण हत्या को लेकर चलाए गए अभियानों ने न केवल गर्भ में जांच पर रोक लगाई है, बल्कि इसे लेकर आम समाज में भी यह धारणा गहरे तक पैठाई है कि लडक़ी को जन्म लेने दिया जाए। भ्रूण हत्या के घटते मामले समाज में लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव को कम होने का आश्वासन दे रहे थे लेकिन परिवार में लडक़े की चाहना कम नहीं हुई और इसी चाहना के चलते भारतीय समाज में एक और कटु सच्चाई आकार ले रही है। और वह है अनचाही लड़कियों के रूप में लड़कियों के साथ भेदभाव की। हाल ही देश की संसद में पेश आर्थिक सर्वे में एक शोध के आंकड़ों को प्रस्तुत कर बताया गया है कि देश में पच्चीस वर्ष की उम्र तक की दो करोड़ 10 लाख लड़कियां ऐसी हैं, जो अनचाही हैं, या यूं कहें कि उनके माता-पिता चाहते थे कि उन्हें ‘पुत्र रत्न’ की प्राप्ति हो और उसके बदले उनकी गोद में आ गई लडक़ी।
कागजी साबित हो रहे हैं भेदभाव रोकने के सभी उपाय
लडक़ा होगा बुढ़ापे का सहारा और लडक़ी चली जाएगी शादी करके पराये घर। यही वह धारणा है, जो भारतीय समाज में इतनी गहरे तक पैठ गई है कि लडक़े और लडक़ी में भेदभाव को रोकने के तमाम उपाय महज कागजी साबित हो रहे हैं। भ्रूण परीक्षण पर रोक और कन्या भ्रूण की हत्या को लेकर चले जागरूकता अभियानों ने जहां एक ओर पिछले तीन दशकों में सामान्य तौर पर माता-पिता के मन में इस बात को पैठाया है कि यदि लडक़ी का जन्म भी होता है तो वह उसका कोई ऐसा अहित न करें कि वह जीवित ही न रहे। किन्तु अब वे लडक़े के जन्म लेने तक प्रजनन की प्रक्रिया में जुटे रहते हैं। आर्थिक सर्वे में सीमा जयचन्द्रन के शोध के हवाले से बताया गया है कि जहां भारत में सामान्य तौर पर प्रत्येक लडक़ी के मुकाबले लडक़े का लिंगानुपात 1.05 है, वहीं जब दंपती की अन्तिम संतान के रूप में इस लिंगानुपात को देखें तो प्रत्येक लडक़ी के मुकाबले यह पहली अन्तिम संतान पर 1.82 हो जाता है, दूसरी अन्तिम संतान के लिए 1.55 व तीसरी अन्तिम संतान के लिए 1.51 व पांचवीं अन्तिम संतान के लिए 1.45 हो रहा है। साफ जाहिर है कि दंपती तब तक संतान प्राप्ति में जुटे रहते हैं, जब तक कि उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं होती।
प्रत्येक लडक़ी के मुकाबले लडक़े का लिंगानुपात
सामान्य तौर पर - 1.05
पहली अन्तिम संतान पर - 1.82
दूसरी अन्तिम संतान के लिए - 1.55
तीसरी अन्तिम संतान के लिए - 1.51
पांचवीं अन्तिम संतान के लिए - 1.45
लाडले बेटे को ज्यादा प्यार , पोषण...
लडक़ों को ज्यादा प्यार मिलता है, इसकी मिसाल एक अध्ययन के निष्कर्ष से भी मिलती है। अध्ययन के मुताबिक, एक साल से छोटे बच्चे वाले घरों में लडक़ों पर लड़कियों की तुलना में 30 मिनट प्रतिदिन (करीब 15 फीसदी समय ज्यादा) ज्यादा ध्यान दिया जाता है। वहीं, दूध के साथ दिए जाने वाले विटामिन सप्लीमेंट्स में लडक़ों को 10 फीसदी अधिक मिलता है।
बदलती अवधारणाएं
एक बेटा होना ही चाहिए, इस मान्यता में बदलाव तेजी से आ भी रहा है। इसका उदाहरण है कई परिवारों में एकल संतान के रूप में लडक़ी का होना या दो संतानों वाले परिवार में दोनों लड़कियों का होना बढ़ रहा है। उद्योगपति आनन्द महिन्द्रा ने आर्थिक सर्वे के जारी होने के तुरन्त बाद आर्थिक सर्वे के तथ्य को कोट करते हुए ट्वीट कर कहा कि उन्हें केवल दो लड़कियों के पिता होने पर गर्व है। वहीं अब कई बेटियां वृद्ध माता-पिता को अपने साथ रख रही हैं, उनकी सेवा कर रही हैं।
बुढ़ापे में रखेगा खयाल
भारतीय समाज में स्त्रियों के विवाह के बाद पुरुष के साथ उसके घर में जा कर रहने का रिवाज है। वहीं, लडक़े अपने विवाह के पश्चात् भी साथ रहते हैं। जब माता-पिता वृद्ध-बीमार होते हैं, आर्थिक तौर अर्जन की स्थिति में नहीं होते, तब उनके ही परिवार में रहने वाला बेटा उनकी देखभाल करता है। इसलिए वे बेटे के बचपन में किए गए खर्च को उस पर बुढ़ापे के निवेश के रूप में देखते हैं, जबकि बेटी पर किए गए व्यय को जिम्मेदारी तक ही सीमित रखते हैं। चीन में वृद्धावस्था पेंशन योजना के लागू होने के बाद लोगों की बुढ़ापे में अपने पुत्र पर निर्भरता खत्म होने से वहां पुत्र की चाहना घट गई है।
बेटा करेगा उद्धार
आखिर बेटे को इतनी तरजीह क्यों? भारतीय समाज में धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मान्यताओं के चलते आम समाज में यह बात अब भी गहरे तक पैठी हुई है कि एक बेटा होना ही चाहिए। अभी भी चिता को अग्नि देने के लिए पुत्र की चाहना है, ताकि उन्हें ‘मुक्ति’ मिल सके। हालांकि इस दिशा में बहुत उदाहरण लगातार सामने आ रहे हैं, जहां पुत्रियों ने अपने माता या पिता को मुखाग्नि दी है। बदलते समय के साथ यह धारणा कमजोर होती जा रही है लेकिन समाज पर इसकी पकड़ तो है ही।
अनचाही बेटियां बदल सकती हैं तस्वीर
अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक शोध के मुताबिक यदि भारत में श्रमशक्ति में लैंगिंक भेदभाव को खत्म कर दिया जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था 27 फीसदी अधिक बढ़ सकती है। हाल ही दावोस में आईएमएफ की अध्यक्ष लागार्डे ने आईएमएफ की ओर से यूको किनोशितो और कल्पना कोचर की ओर से किए गए शोध को उद्धृत करते हुए यह कहा था। शोध के मुताबिक लड़कियों का प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा का फीसद बढ़ रहा है पर यह बढ़ा हुआ फीसद श्रम शक्ति ? में नजर नहीं आ रहा है। यानी लड़कियां पढ़-लिख रही हैं पर काम नहीं कर रही हैं। शोध के मुताबिक महिलाएं गैरनियमित एवं अनौपचारिक क्षेत्रों में ज्यादा काम करती हैं और ये क्षेत्र उन्हें रोजगार सुरक्षा की गारंटी बहुत कम देते हैं। भारत में महिलाओं की श्रमशक्ति में भागीदारी महज 33 फीसदी के आस-पास है, जबकि वैश्विक अनुपात 50 फीसदी है और पूर्वी एशिया में 63 फीसदी है।
हमारे दो में से एक लडक़ा
सदियों से हमारे समाज में महिलाओं की अपनी कोई पहचान नहीं रही थी। उन्हें पुत्र या पति के नाम से जाना जाता रहा है। यही कारण था कि कई गांवों, जातियों में लैंगिक अनुपात बहुत ही कम था। पीसीपीएनडीटी कानून के कड़े पालन से इस दिशा में काम हुआ है लेकिन अब भी बहुत काम करना बाकी है। जहां तक बेटे की चाह में बेटियों को जन्म देते जाने की बात है तो किसी भी परिवार को अपनी हैसियत के अनुसार ही संतानोत्पत्ति करनी चाहिए। परिवार कल्याण मिशन के तहत ‘हम दो हमारे दो’ का नारा दे ही रहे हैं पर लोगों ने अपने हिसाब से यह जोड़ लिया कि उन दो में से एक लडक़ा होना चाहिए। आज के जमाने में अनचाहा कोई नहीं है बल्कि लड़कियां तो लडक़ों के मुकाबले परिजनों के लिए मजबूत संबल साबित हो रही हैं। - नवीन कुमार जैन, मिशन निदेशक, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, राजस्थान
Published on:
07 Feb 2018 12:53 pm
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