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अंर्तमुखी-13: कर्म में छिपा है जीवन का मर्म

जीवन भी ऐसा ही है। संसार एक सरोवर की तरह है और हमारी आत्मा जल की तरह है। आत्मा तो स्वच्छ है लेकिन उसमें कर्म रूपी पदार्थ लग गया है।

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Sunil Sharma

Dec 27, 2017

param pujya

Muni Pujya Sagar Maharaj

- मुनि पूज्य सागर महाराज

प्राय: सामान्य व्यक्ति सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण कर्म फल ही मान लेता है, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य को कर्म के फल के रूप में तो सुख-दु:ख आदि मिलते हैं, किन्तु साथ ही कर्म के परिणाम व प्रभाव के रूप में भी सुख-दुख की प्राप्ति होती है। इस तरह से देखा जाए तो अपने कर्म के परिणाम व प्रभाव से भी सुख-दुख की प्राप्ति होती है तथा दूसरे द्वारा किए जाने वाले कर्म के परिणाम व प्रभाव से भी सुख-दुख की प्राप्ति होती है।

जल कुदरती तौर पर स्वच्छ और शीतल माना जाता है परंतु जब उसमें सुगन्धित या दुर्गन्धित पदार्थ मिल जाए तो जल की तासीर और स्वभाव पूरी तरह बदल जाता है। जल में विकार पैदा हो जाते हैं। यह विकार उस पदार्थ से आया है, जिसे उसमें मिलाया गया था। सुगन्धित पदार्थ से जल में जो परिवर्तन आता है, उसके सुख का अनुभव उतनी ही देर तक है, जब तक वह जल है। उसके बाद वह आनंद नहीं आएगा, जो पहले था। इसी प्रकार दुर्गन्धित पदार्थ के मिलाए जाने पर वह जल दुख का कारण होगा पर वह भी उतनी देर तक ही दुख देगा, जब तब वह जल है। उसके बाद परिवर्तन होगा, अनुभव बदल जाएगा।

अच्छा-बुरा किया काम ही कर्म है
जीवन भी ऐसा ही है। संसार एक सरोवर की तरह है और हमारी आत्मा जल की तरह है। आत्मा तो स्वच्छ है लेकिन उसमें कर्म रूपी पदार्थ लग गया है। सुगन्धित पदार्थ अर्थात् पुण्य आत्मा से लगने पर सुख, आनंद के साथ धन, सम्मान और आदर मिलता है लेकिन देखा जाए तो आत्मा में विकार आ ही गया है। जल में सुगन्धित पदार्थ मिलते ही वह अभिषेक, पूजा, सम्मान, दान, प्रेम, वात्सल्य, गुरु सेवा के काम आने लगता है। दुर्गन्धयुक्त पदार्थ जिसने मिलाया, वह आत्मा दुखों में फंस गई। वह दुख का अनुभव करती है। दुर्गन्ध का अभिप्राय है कि वह पाप कर्म के कारण दुख का अनुभव करता है। दुर्गन्धयुक्त जो पदार्थ मिला है, वह पदार्थ है निन्दा, ईष्र्या, द्वेष का, जिसने आत्मा के स्वभाव को बदल दिया है। आत्मा तो कर्मरहित है पर संसार में पुण्य और पाप के कारण अपने मूल और वास्तविक स्वभाव को भूल गई है। कर्म के स्वभाव को समझ कर हम पहले दुर्गन्धयुक्त पदार्थ से अर्थात् पाप से बचने और सुगन्धित पदार्थ को अर्थात् पुण्य की क्रिया को समझने का प्रयत्न करें, यही कर्म है। हमारे द्वारा किया शुभ और अशुभ कार्य ही कर्म है।

संगत के साथ बदलते हैं कर्म
जल जब तक आकाश में बादलों के रूप में है, जब तक वह स्वच्छ है, पर जैसे ही वह बादल फटता है और वर्षा होती है तो जल पृथ्वी को स्पर्श कर लेता है। पृथ्वी का स्पर्श प्राप्त होते ही जल में विकार पैदा हो जाते हैं। वह जल पृथ्वी में समा जाए तो वह स्वच्छ हो जाता है, सुगन्धित पदार्थ के मिलने जैसा। इसलिए लोग कुएं, ट्यूबवैल के माध्यम से उस पानी को पीते हैं, अन्य काम में लेते हैं पर जो जल नाली या शौचालय में जाता है, वह दुर्गन्धित हो जाता है। आत्मा सिद्ध शिला में है, वह तो निर्मल है पर जो स्वर्ग आदि में है, वह विकारी जल की तरह ही है। जल को अन्य पदार्थों का सहयोग मिला तो उसका स्वभाव बदल गया, कभी जल बादल में तो कभी पृथ्वी पर तो कभी नाली में तो कभी वैसे भी बहता है। सही मायने में देखा जाए तो संगत के साथ ही कर्म बदलते हैं। यदि आपकी संगत साधु-संतों और विद्वानों की है तो आपके कर्म खुद ब खुद अच्छे होने लगेंगे।

आत्मा और कर्म का संबंध है अनादिकाल से
इस जगत में सब कुछ अतीत से चला आ रहा है। दादा से परदादा और परदादा से भी आगे से चले आ रहे हैं हम सब। इसी तरह आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कब से है, पता नहीं। इसलिए इसका संबंध अनादि से माना जाता है। प्राय लोग सोचते हैं कि पहले आत्मा बनी या कर्म। कौन-किससे पहले मिला, अगर इसमें पड़ोगे तो तुम अपने आप को उलझा लोगे। इसके जवाब को केवल ऐसे समझो कि पानी में आपने शक्कर डाली तो बताओ कौन किसमें पहले मिला। तुम्हारे पिता पहले बने या माता, जब इसका जवाब नहीं, जबकि वे तो सामने दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में जो दिखाई नहीं दे रहा है, उसका पता कैसे किया जा सकता है। उनका तो फल दिखाई दे रहा है। तुमसे कोई पूछता है कि तुम्हारा अपने पिता से सम्बन्ध कब से है तो तुम यही कहोगे कि जब से मैं पैदा हुआ पर सच तो यह है कि जिस दिन तुम गर्भ में आए थे, उसी दिन से है। बस यही मान लो, जब से तुमने इस संसार में जन्म लिया है, तब से कर्म तुम्हारे साथ है।

ज्यादा सोचने से घिरेंगे उलझनों में
अगर तो यह सोचते रहोगे कि बादल कब से है, जल कब से है, जल कब निर्मल था, कब इसमें विकार आया...तो इन सवालों के जवाब किसी को नहीं पता। हम जबसे पैदा हुए हैं, तब से देख रहे हैं और बस यही सच है। यही हमारे दादा, परदादा ने देखा है। हमें अपने पिता से जानकारी मिली है। हम उस बात पर श्रद्धा के साथ विश्वास करते हैं क्योंकि वह हमारे अपनों ने कहा है। बस भगवान की वाणी को भी अपना मान लो।