
OSHO on ASHTAVAKRA GITA: भगवान को कैसे पाएं? ओशो ने समझें।
Ashtavakra Gita By Osho: सनातन परंपरा में ये बात साफ कही गई है, कि चौरासी लाख योनियों के बाद मानव जन्म मिलता है। इसका उद्देश्य केवल एक होता है, आत्मा का परमात्मा से मिलन। इससे समझ आता है कि, हम शरीर नहीं है। जीवन में सबसे बड़ी भूल हम यहीं करते हैं कि, खुदको एक शरीर मानते हैं। बॉडी की तरह देखते हैं। इतना ही नहीं केवल इस तन की खुशी के लिए ही सारा काम करते हैं और इसे ही संतुष्ट करने में सारी जिंदगी गुजार देते हैं। जबकि शास्त्रों ने हमें बार-बार आसान भाषा में समझाया है कि, हम शरीर नहीं आत्मा है।
अब आत्मा के गुणों को, इसकी खासियतों को समझ लेना भी जरूरी है। क्यों हमें ये समझना, जानना और महसूस करना है कि हम एक आत्मा है! यह सवाल स्वाभाविक है। दरअसल, धर्म और अध्यात्म हमें आत्म तत्व को पहचानने के लिए इसलिए कहते हैं कि, आत्मा अजर, अमर, निर्गुण, निराकार और सुख-दुख से परे होती है। आत्मा को न दुख होता है, न सुख। न वह रोती है, न हंसती है। न शोक करती है, न प्रसन्न होती है। वो सब गुणों से रहित होती है। गीता में श्री कृष्ण ने भी यही कहा है...मैं नाम, रूप, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि नहीं हूं। मैं इन सबसे हर तरह से पुराना, इनसे बिल्कुल अलग, चेतन, साक्षी, सबका ज्ञाता, सत्, नित्य, अविनाशी, अविकारी, अक्रिय, सनातन, अचल और समस्त सुखों-दु:खों से रहित केवल शुद्ध आनन्दमय आत्मा हूं। यही मैं हूं। बस इसी आत्म तत्व को जानकर, हम परमात्मा के करीब हो सकते हैं। उस परम तत्व यानी ईश्वर को पा सकते हैं। महसूस कर सकते हैं। वेदों ने तो यहां तक कहा है कि, आत्मा ही परमात्मा है। यानी कि ये परमात्मा से अलग नहीं है। आत्मा अलग नहीं है, मतलब आप अलग नहीं हैै, वो आप ही हैं, जिसे आप पाना चाहते हैं। जिसके लिए आप तरसते हैं, जिसके लिए आप ये सोचते हैं कि उसके मिलते ही सब मिल जाएगा और कुछ पाने को बाकी नहीं रहेगा। असल में, शास्त्रों के अनुसार वो खुद आप ही हैं। कहीं ढूंढ़ना नहीं है, कहीं खोजने नहीं लग जाना है। बस शांत होकर, ठहरकर, मन के जाले हटाकर उसे महसूस करना है। देखना है। ओशो ने यही बात, अपनी पुस्तक 'मुक्ति की आकांक्षा' (Mukti ki Aakansha by Osho) में बेहद खूबसूरती से और आसान शब्दों में बयां की है, समझाई है।
ओशो कहते हैं…ईश्वर-प्राप्ति को कठिन साधनाओं, वर्षों के तप और कठोर नियमों से मत जोड़ो। अष्टावक्र की गीता इस धारणा को जड़ से तोड़ती है। अष्टावक्र ऋषि कहते हैं कि, भगवान कोई दूर की वस्तु नहीं है, न ही उसे पाने के लिए किसी प्रक्रिया की आवश्यकता है। वह तो सदा से हमारे भीतर ही उपस्थित है। इसे बस खुली आंखों से देख लेेने भर की देर है। वो तत्क्षण महसूस हो जाएगा।
अष्टावक्र गीता का फेमस सूत्र कहता है, “न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।” तुम न शरीर हो, न कर्ता, न भोक्ता। जैसे ही यह बोध जाग जाता है, ये बात समझ आ जाती है, सारे बंधन अपने आप गिरने लगते हैं। आप भार मुक्त होकर आजाद महसूस करते हैं। खुशी, सुकून, हंसी, मुस्काराहट में जीने लगते हैं। गम में, दुखों में भी जिएंगे तो भी, आप रो न सकेंगे फिर, क्योंकि आपको बात समझ आ गई कि करने वाले आप हैं ही नहीं। ये जो बिगड़ा भी है, तो मैंने कहां बिगाड़ा है। कुछ सुधार भी कैसे कर सकता हूं इसमें, जब बिगाड़ा मैंने नहीं, सुधारूं मैं कैसे। सुधारना-बिगाड़ना मेरे हाथ में, मेरे बस में, मेरे क्षेत्राधिकार में है ही नहीं।
ओशो कहते हैं कि, मुक्ति कोई भविष्य की घटना नहीं, बल्कि इसी क्षण की संभावना है। असली समस्या ईश्वर की अनुपस्थिति, परमात्मा की अबसेंस नहीं, बल्कि मन की उपस्थिति, मन का फोकस है। अभी मन के विचार, इच्छाएं और भोग की परतें आत्मा पर धूल की तरह जमी हुईं हैं। जैसे ही यह काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, ईर्ष्या, वैमनस्य, द्वैष की धूल हटेगी…आत्मा दिखाई देगी। महसूस होगी। परमात्मा फील होगा। यही समझ आत्मा और परमात्मा के बीच के डिफरेंस को, अंतर को खत्म करती है।
ओशो समझाते हैं, जैसे ही साधक जप, तप और विधियों की दौड़ से बाहर आता है और सिर्फ साक्षी बनकर स्वयं को देखता है, उसी क्षण परमात्मा का अनुभव घटित हो जाता है। न कुछ छोड़ना है, न कुछ पाना है, सिर्फ देखना है कि जो खोज रहे हो, वही तुम हो। साक्षी भाव यानी कि खुद को आत्मा मानकर, शरीर की गतिविधियों को, एक्टीविटिज को, मन के विचारों को देखना। आत्मा के तौर पर खुद पर गौर करना ही साक्षी भाव है। ओशो ने साक्षी भाव पर बहुत जोर दिया है। बार-बार साक्षी भाव रखने की बात कही है।यदि साक्षी भाव आ गया, तो सारी मुसीबतों से मुक्ति संभव है। परमात्मा से मिलन संभव है। परमानंद घटित हो जाएगा।
अष्टावक्र कहते हैं, भगवान को पाने का कोई उपाय, जप, तप, नियम, विधि, विधान, प्रक्रिया नहीं है। वो तो हमेशा से उपलब्ध है। तत्क्षण मिल सकता है। जरूरत है तो बस, मन के जालों को तोड़ने की। अष्टावक्र और ओशो दोनों का संदेश, सीधा और साफ है। भगवान अभी मिल सकता है। इसी क्षण। बिना प्रयास के। केवल मन के जाले टूटने की देर है। हृदय पर जो सांसारिक (Materialistic) और भोग की धूल जमी है, उसे हटाते ही; वो महसूस होने लगता है। तुरंत मिल जाता है। इसी क्षण। अभी।
Updated on:
27 Dec 2025 02:54 pm
Published on:
26 Dec 2025 06:31 pm
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