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23 जुलाई जयंती विशेष : मौत तो मेरी महबूबा है, मैं जब चाहूंगा गले लगा लूंगा- चन्द्रशेखर आजाद

chandra shekhar azad jayanti : मौत तो मेरी महबूबा है, मैं जब चाहूंगा गले लगा लूंगा- चन्द्रशेखर आजाद

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भोपाल

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Shyam Kishor

Jul 23, 2019

chandra shekhar azad jayanti 23 july 2019

23 जुलाई जयंती विशेष : मौत तो मेरी महबूबा है, मैं जब चाहूंगा गले लगा लूंगा- चन्द्रशेखर आजाद

आजाद हूं आजाद ही मरूंगा

चन्द्रशेखर आजाद भारत माता का एक ऐसी वीर सपूत जो केवल 25 साल की उम्र में शहीद हो गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्वरतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। वे हमेशा कहते थे, मौत तो मेरी महबूबा है, मैं जब चाहूंगा गले लगा लूंगा। मैं तो आजाद हूं आजाद ही मरूंगा।

आजाद की शहादत

आजाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद 15 अगस्त सन् 1947 को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके। चन्द्रशेखर आजाद अपने दल के सभी क्रान्तिकारियों में बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। सभी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे। वे सच्चे अर्थों में पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के वास्तविक उत्तराधिकारी थे।

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काकोरी कांड को अंजाम दिया

सन 1922 में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को अचानक बंद कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आ गया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ गये। तभी वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। आज़ाद ने क्रांतिकारी बनने के बाद सबसे पहले 1 अगस्‍त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया।

दिल्‍ली असेम्बली में बम धमाका

1927 में बिसमिल के साथ मिलकर उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया। भगत सिंह व उनके साथियों ने लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला संडर्स को मार कर लिया। फिर दिल्‍ली असेम्बली में बम धमाका भी आजाद ने किया।

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अमीर घरों में डकैतियां डाली

आजाद का कांग्रेस से जब मन भंग हो गया आजाद ने अपने संगठन के सदस्‍यों के साथ गांव के अमीर घरों में डकैतियां डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके। इस दौरान उन्‍होंने व उनके साथियों ने एक भी महिला या गरीब पर हाथ नहीं उठाया। डकैती के वक्‍त एक बार एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन ली तो अपने उसूलों के चलते हाथ नहीं उठाया। उसके बाद से उनके संगठन ने सरकारी प्रतिष्‍ठानों को ही लूटने का फैसला किया।

जब पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेरा

17 दिसंबर, 1928 को आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेर लिया और ज्यों ही जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकले, तो राजगुरु ने पहली गोली दाग दी, जो सांडर्स के माथे पर लग गई वह मोटरसाइकिल से नीचे गिर पड़ा। फिर भगत सिंह ने आगे बढ़कर 4-6 गोलियां दागी, जब सांडर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया।

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27 फरवरी 1931 को आजाद, आजाद हो गये

23 जुलाई को उत्‍तर प्रदेश में जन्में और मध्‍य प्रदेश में पले चन्द्रशेखर आजाद बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों वाले थे। उन्होंने कसम खाई थी कि जीते जी उन्हें कोई भी अंग्रेज हाथ नहीं लगा सकेगा। इस कसम को पूरी करने के लिए आखिरकार उस महान योद्धा ने वह फैसला लिया जिससे वह हमेशा के लिए आजाद हो गए। 27 फरवरी 1931 का वह दिन आजाद के लिये अंतिम दिन बन गया। चंदशेखर आजाद ने पिस्टल की आखिरी गोली अपनी कनपटी पर चला दी और वहीं पेड़ के नीचे हमेशा के लिए शांत होकर अमर हो गए।

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