इसकी पहचान आसान नहीं है । परचर्चा से इसकी शुरुआत होती है । परनिन्दा का रस इसमें घुलने से इसके नशे का नशीलापन गाढ़ा, मायावी और जादुई बनता है । परचर्चा और परनिन्दा का घुला-मिला रूप ही प्रपंच है। इसकी मायावी चकाचौंध में सबसे पहले जीवन की विवेक दृष्टि खोती है । जीवन लक्ष्य की स्मृति विलीन होती है । फिर अनायास ही द्वेष दुर्मति एवं दुर्बुद्धि पनप जाते हैं । इसके मायावी जादू से मित्र, शत्रु नजर आते हैं और भटकाने वाले प्रपंची जन सगे-सम्बन्धी लगने लगते हैं ।
प्रपंच के अंकुर कभी भी, कहीं भी, किसी में भी फूट निकलते हैं। बस इसके विषय बीजों के लिए परचर्चा और परनिन्दा का खाद-पानी चाहिए । इसकी विषवल्लरी के उपजते, पनपते और पल्लवित होते ही व्यक्ति आत्मविमुख व ईश्वर विमुख हो जाता है । अन्तःकरण में इसके जन्मते ही ईश्वर और आत्मा केवल दो शब्द बनकर रह जाते हैं। इनका अर्थ खो जाता है । प्रपंच की इस माया में सामान्य जन ही नहीं, साधक भी उलझकर भ्रमित होते और भटकने लगते हैं ।
उनकी साधना बातों और कर्मकाण्ड तक सिमट जाती है । साधना की आकृति फलती-फूलती रहती है, पर उसकी प्रकृति के प्राण प्रंपच चूसता रहता है । इन साधकों की ऐसी स्थिति के बारे में सन्त कवियों ने कहा है- ‘ब्रह्मज्ञान बिनु बात न करहीं । परनिन्दा करि विष रस भरही ॥’ ब्रह्मज्ञान के बिना कोई बात नहीं करते, लेकिन अन्तःकरण को परनिन्दा के विष रस से भरते रहते हैं । इनका उद्धार वेदान्त वचनों को पढ़ने, सुनने और प्रवचन करने से नहीं, प्रपंच के मायापाश से छूटने में है । सन्त कवि तुलसी के वचनों में सभी के लिए सीख है- ‘परचर्चा, परनिन्दा तजि, भजुहरि’ अर्थात् परचर्चा और परनिन्दा को छोड़कर हरि को भजो । तभी प्रपंच की जादुई माया से छुटकारा मिलेगा। मोक्ष की तात्त्विक अनुभूति होगी ।