उसने कहा- “बेटा कुछ भीख दे दे । बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा- माँ एक बेचारी गरीब माँ मुझे ‘बेटा’ कहकर कुछ माँग रही है । उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा- बेटा रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो । इसपर बालक ने हठ करते हुए कहा- माँ चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को, मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा ।
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा- लो, दे दो । बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया । भिखारिन को तो मानो ख़ज़ाना ही मिल गया । उसका पति अंधा था । कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए । उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया । उसे बचपन का अपना वचन याद था । एक दिन वह माँ से बोला- माँ तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ ।
पर माता ने कहा- उसकी चिंता छोड़, मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे । हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो । पुत्र ने ऐसा ही किया । माँ के उस पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर है ।